विचार, वचन और कर्म का सामंजस्य शांति और खुशी के स्त्रोत

आजकल, हम राजनेताओं में दोहरे मानदंड और भ्रष्ट सिविल सेवकों में सत्यनिष्ठा की कमी देखते हैं। इसलिए, प्रश्नगत उद्धरण उस समय के लिए प्रासंगिक हो जाता है, जब हम तीनों के बीच सद्भाव की अनुपस्थिति देखते हैं। गांधीजी ने यह भी कहा है कि “खुशी तब है जब आप जो सोचते हैं, जो कहते हैं, और जो करते हैं, उनमें सामंजस्य हो।” इसलिए मन की शांति और जीवन में खुशी पाने के लिए व्यक्ति को हमेशा विचार, वचन और कर्म का पूर्ण सामंजस्य रखने का प्रयास करना चाहिए।

-डॉ सत्यवान  सौरभ

गांधीजी के अनुसार, मन की शांति और जीवन में खुशी तब होती है, जब विचार, शब्द और कर्म में सामंजस्य होता है। वे विचारों के शुद्धिकरण पर बल देते हैं, क्योंकि विचार ही शब्दों और कार्यों की ओर ले जाते हैं। सत्यनिष्ठा रखने वाले व्यक्ति के विचारों, शब्दों और कार्यों में हमेशा सामंजस्य बना रहता है। यह व्यक्ति के मजबूत चरित्र का निर्माण करती है। क्या होता है जब विचार, वचन और कर्म के बीच कोई सामंजस्य नहीं होता है? जब विचार और कर्म में तालमेल नहीं होगा, तो मन में वैमनस्य होगा। उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति ईमानदारी में विश्वास करता है, लेकिन किसी विशेष परिस्थिति में झूठ बोलता है। वह अपराध बोध महसूस करेगा और विवेक का संकट होगा। किसी के आचरण की नैतिक शुद्धता या अनैतिकता या किसी के इरादों की अच्छाई या बुराई के बारे में सचेत होने का अर्थ है विवेक का होना।

जब कथनी और करनी में तालमेल नहीं होगा, तो व्यक्ति दोयम दर्जे का होगा और लोग कमजोर चरित्र वाले व्यक्ति पर विश्वास नहीं करेंगे। उदाहरण के लिए, जब कार्यालय में कोई वरिष्ठ कार्य में लैंगिक समानता की बात करता है, लेकिन पदोन्नति देते समय पुरुष कर्मचारियों के प्रति पक्षपाती होता है।

एक गलत विचार बड़ी संख्या में एक ही तरह के विचारों को आकर्षित कर सकता है, और व्यक्ति आंतरिक बेचैनी की स्थिति में आ जाता है। झूठे नकारात्मक विचार बहुत जल्द गलत कार्यों को जन्म देंगे, जिससे व्यक्ति को जीवन के सभी क्षेत्रों में विकास करने से रोका जा सकेगा। उदाहरण के लिए, सार्वजनिक कार्यालय में भ्रष्टाचार में लिप्त होना।

क्या होता है जब विचार शुद्ध होते हैं? जब विचार शुद्ध होते हैं, तो व्यक्ति द्वारा नैतिक कार्य किया जाएगा। व्यक्ति की अंतरात्मा सही तरीके से कार्य करने की आज्ञा देती है। सही विचार स्वार्थी इच्छाओं को नियंत्रित करने में सहायक होते हैं। जब विचार शुद्ध होते हैं, तो व्यक्ति दूसरों की मदद करने की कोशिश करेगा और आचरण में निस्वार्थ रहेगा। उदाहरण के लिए, जब एक सिविल सेवक के पास शुद्ध विचार होते हैं, तो वह हमेशा सार्वजनिक सेवा के उद्देश्य को सबसे ऊपर रखेगी। यह जनता बनाम व्यक्तिगत हित की दुविधा को हल करने में मदद करता है।

जब विचार शुद्ध होते हैं, तो एक व्यक्ति में एक मजबूत चरित्र का निर्माण होता है। यह एक व्यक्ति में आंतरिक शक्ति को सक्षम बनाता है, जो तब ईमानदारी के साथ कार्य कर सकता है और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना भी कर सकता है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि लाखों लोग पहले रह चुके थे और उनके नाम हमेशा के लिए भुला दिए गए थे, क्योंकि उनके विचारों, शब्दों और कार्यों का कोई मूल्य नहीं था। लेकिन सदियों तक उच्च विचार वाले, वास्तविक लोगों के नाम बने रहे जो पुराने नहीं थे, क्योंकि उनका सत्य प्रकृति में दिव्य था और उनके विचारों, शब्दों और कर्मों में सामंजस्य था। प्लेटो, गैलीलियो, एडिसन, कार्नेगी, आइंस्टीन और अन्य धर्मशास्त्री, वैज्ञानिक और विचारक महान व्यक्ति और अपने विचारों के स्वामी बन गए।

जब हमें कोई महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा जाए, वह तब पूरा होगा जब हमारे पास उसे करने का तरीका निराला होगा। चर्चा चल रही है किष्किंधा कांड के उस प्रसंग की जब वानरों को सीताजी की खोज का बड़ा दायित्व सौंपा गया था। सुग्रीव के मुंह से जो आदेश निकल रहे थे वे आज प्रबंधन के युग में किसी बड़ी जिम्मेदारी को पूरा करने के सबक हैं। तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी, ‘मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचंद्र कर काजु संवारेहु।। भानु पीठि सेइअ उर आगी। स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी।।’ मन, वचन तथा कर्म से उसी का (सीताजी का पता लगाने का) उपाय सोचना। श्रीरामचंद्रजी का कार्य सम्पन्न करना। सूर्य को पीठ से और अग्नि को हृदय से सेवन करना चाहिए। परंतु स्वामी की सेवा तो छल छोड़कर सर्वभाव से (मन, वचन, कर्म से) करनी चाहिए।

इन पंक्तियों में तुलसीदासजी ने मन, वचन और कर्म से काम करने की हिदायत दी है। होता यह है कि हमारे मन में कुछ और होता है, बोलते कुछ और हैं तथा करते कुछ और। जितना यह भेद है आप उतने ही कमजोर होते जाएंगे। मन, वचन और कर्म इन तीनों में मन और चंद्रमा एक-दूसरे से संचालित होते हैं। इसलिए रामजी के नाम को उन्होंने रामचंद्र लिखा, तो मन का संबंध चंद्रमा से है। कर्म का संबंध सूर्य से है और वचन का संबंध अग्नि से। आगे लिखा, ‘स्वामी का कार्य छल-कपट छोड़कर करना चाहिए।’ इसी के उदाहरण में समझाया कि जैसे हम सूर्य को पीठ से और अग्नि को सामने से सेंकते हैं तो इसमें हमारा स्वार्थ होता है, क्योंकि सूर्य पीठ से सेंकने पर ही उपयोगी है और अग्नि सामने से। नहीं तो दोनों नुकसान करेंगे।

 जब आपको कोई आदेश दिया जाए। स्वामी मतलब आपका प्रबंधन हो सकता है, वह आपकी व्यवस्था हो सकती है। ऐसे काम में छल-कपट या भेद न करें।

 आजकल, हम राजनेताओं में दोहरे मानदंड और भ्रष्ट सिविल सेवकों में सत्यनिष्ठा की कमी देखते हैं। इसलिए, प्रश्नगत उद्धरण उस समय के लिए प्रासंगिक हो जाता है, जब हम तीनों के बीच सद्भाव की अनुपस्थिति देखते हैं। गांधीजी ने यह भी कहा है कि “खुशी तब है जब आप जो सोचते हैं, जो कहते हैं, और जो करते हैं, उनमें सामंजस्य हो।” इसलिए मन की शांति और जीवन में खुशी पाने के लिए व्यक्ति को हमेशा विचार, वचन और कर्म का पूर्ण सामंजस्य रखने का प्रयास करना चाहिए।

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