(दीपक सिंह)
महिलाओं की शक्ति, समझ और नेतृत्व, जिसे दशकों तक भारतीय राजनीति में जगह नहीं मिली, उसको पूजन योग्य बताते हुए मोदी सरकार ने ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ का प्रस्ताव लोकसभा में पेश तो कर दिया है, लेकिन जनगणना और डिलिमिटेशन यानी परिसीमन प्रक्रिया में उलझाकर त्वरित लागू होने में अड़चनें भी पैदा कर दी हैं।
फर्रुखाबाद। (आवाज न्यूज ब्यूरो) विगत दिन नई संसद भवन के उद्घाटन के साथ ही मोदी सरकार ने महिला सशक्तिकरण के तहत लोकसभा व विधानसभा चुनाव में आधी आबादी को प्रतिनिधित्व देने के आरक्षण की दशकों की मांग को विराम लगाते हुए जब ‘नारी शक्ति वंदन बिल’ पेश किया तो इस ऐतिहासिक फैसले के बाद देशभर में इसको लेकर प्रतिक्रियाओं का बाजार गर्म हो गया। सरकार जिसे ऐतिहासिक फैसला बता रही है तो वहीं बहुत से लोग इसे सिर्फ चुनावी स्टंट मान रहे हैं। चुनावी स्टंट मानने का भी एक कारण यह है कि इस विधयक को ‘जनगणना और डिलिमिटेशन यानी परिसीमन’ प्रक्रिया में उलझाकर 2024 में तो इसे नहीं लागू करने वाली, जिससे सरकार की नियत पर भी सवाल उठ रहे हैं। ‘नारी शक्ति वंदन बिल’ पेश करने के बाद देश के साथ ही जिले में भी आम गृहणियों ने अपनी-अपनी प्रतिक्रिया देना शुरू कर दिया है। वरिष्ठ संवाददाता दीपक सिंह ने जब शहर की आम महिलाओं से लाये गए इस बिल के संदर्भ में प्रतिक्रिया जाननी चाही तो लब्बोलुआब यही सार निकला कि साल 1992 में पंचायत के स्तर पर 33 प्रतिशत आरक्षण का क़ानून बनाए जाने के बावजूद यही आरक्षण संसद और विधानसभाओं में लाने के प्रस्ताव पर आम राय बनाने में तीन दशक से ज़्यादा लग गए हैं। महिलाओं को आरक्षण न देने के तर्क में सबसे आगे उनकी कम राजनीतिक समझ बताया जाता रहा है। इसी के चलते पंचायत के स्तर पर आरक्षण देने के बावजूद सरपंच चुनी गई औरतों का कागज़ों पर नाम तो रहा, लेकिन उनके पति ही उनका काम करते रहे। इन्हें ‘सरपंच-पति’ का उपनाम तक दे दिया गया। क्या उसी तरह अब सांसद-पति या विधायक-पति देखने को मिलेंगे.? लोकसभा और विधानसभा में इस बिल के तहत महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने की बात तो की गई है, लेकिन राज्यसभा और विधान परिषद में इसका कोई प्राविधान नहीं रखा गया है। इसके साथ ही आधी आबादी न्याय में ओबीसी के साथ ही 50 फीसदी कोटा रखे जाने की भी कई महिलाओं ने सरकार से मांग रखी है।
फर्रुखाबाद की ज्योति सिंह, आरती, रीना, कल्पना सागर आदि गृहणियों का कहना है कि क़ानून बनाने और नारी शक्ति के वंदन के अमल में सरकार का ही नहीं, राजनीतिक पार्टियों का इम्तिहान है। काम के अन्य क्षेत्रों की ही तरह, राजनीति भी पुरुष प्रधान रही है। आरक्षण के ज़रिए महिलाओं के राजनीति में आने को समर्थन देने से राजनेता बार-बार पीछे हटते रहे हैं। इन्होंने कहा कि ‘महिलाओं के अयोग्य’ होने का बहाना पुरुष उन्हें रोकने के लिए अपनाते रहे हैं। इनका मानना है कि पंचायतों में आरक्षण के अनुभव से सीख लेने की ज़रूरत है। जब औरतों के लिए पंचायतों में जाने का रास्ता खोला गया तब उन्हें उसके लिए तैयार नहीं किया गया। इस वजह से उन्हें ओहदे तो मिले, लेकिन ताक़त पुरुषों के पास ही रही। ऐसे में कड़े आदेश के अलावा कोई चारा नहीं है। वहीं, राबिया, फरजाना खातून, रुख्सार का कहना है कि लोकसभा व विधानसभा चुनाव में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण के कदम को ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि इसे 50 फीसदी किया जाना चाहिए और इसमें अल्पसंख्यक महिलाओं को भी लाना चाहिए, जिससे अल्पसंख्यक समाज को भी प्रतिनिधित्व मिल सके। साथ ही कहा कि सरकार ने जनगणना और डिलिमिटेशन यानी परिसीमन प्रक्रिया में उलझाकर अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है कि वो इसे त्वरित अमलीजामा नहीं पहनाने वाली। रागिनी, ज्योत्स्ना, अनीता सिद्धार्थ का कहना है कि इस वक़्त हर पार्टी को ख़ुद से ये सवाल पूछना चाहिए कि फ़ैसले लेने के उच्च पदों पर हमने कितनी महिलाओं को नियुक्त किया है.?’ पंचायत की तरह ही औरतें फिर रबर स्टैम्प बनकर न रह जाएँ, इसके लिए पार्टियों को उन्हें तजुर्बा हासिल करने के मौक़े और बड़ी ज़िम्मेदारियाँ देनी होंगी। साथ ही नारी सशक्तिकरण में पुरुष प्रधान को अपने अहम को त्याग कर पूरी ईमानदारी से आधी आबादी को न्याय देने के लिए आबादी के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान किया जाए। वहीं, ममता, कुसुम, मोहिनी आदि गृहणियों ने मोदी सरकार के इस ऐतिहासिक फैसले पर हर्ष व्यक्त कर कहा कि ‘परिसीमन प्रक्रिया पर संशय नहीं होना चाहिए, उसे टालने या रोकने की भी तो समय सीमा होगी, ये रास्ता बना है और उन्हें यक़ीन है कि पीएम मोदी अपने दृढ़ इरादे को गंतव्य तक पहुंचाकर ही मानेंगे। साथ ही कहा कि आरक्षण के लागू होने के बाद महिलाओं के प्रति पार्टियों को रवैया बदलना होगा। पितृसत्ता से दशकों में बनी अड़चनें दूर करने में दावों के साथ पार्टियों की इच्छा शक्ति का अब इम्तिहान है।