एकतरफा राजनीति का दौर खत्म : प्रियंका सौरभ

(चुनाव के मैदान में प्रतिस्पर्धा लौटेगी, संसदीय परंपराओं का बढ़ेगा सम्मान)

नई दिल्ली।(आवाज न्यूज ब्यूरो)  लोकसभा चुनाव में भी पूरे देश में यह देखने को मिला कि चुनाव विपक्षी पार्टियां नहीं, बल्कि जनता लड़ रही थी। जनता ने ही भाजपा की एकतरफा राजनीति पर विराम लगा दिया है और विपक्ष को इतनी ताकत दी है कि वह भाजपा से प्रतिस्पर्धा कर सके। कह सकते हैं कि विकल्पहीनता यानी ‘देयर इज नो ऑल्टरनेटिव’ का फैक्टर समाप्त हो सकता है। यह भी सहज राजनीति के दिनों की वापसी का संकेत है। भारत में राजनीति हमेशा नेता के करिश्मे पर ही केंद्रित रही है और ज्यादातर नेताओं  ने चुनाव जीतने के बाद मनमानी ही की है। फिर भी उम्मीद की जा सकती है कि पिछले 10 साल में जिस तरह से राजनीति और शासन का नैरेटिव सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ईर्द गिर्द केंद्रित हो गया था उसमें बदलाव आएगा। 

जबरदस्त ध्रुवीकरण के बावजूद भाजपा के खिलाफ जाने वाला करीब 60 फीसदी वोट पूरी तरह से विपक्ष के साथ क्यों नहीं आया? निश्चित रूप से इन सभी पहलुओं से नतीजों का विश्लेषण होगा। लेकिन नतीजों के बाद बड़ा सवाल यह है कि राजनीति में क्या बदलाव आएगा? क्या अब केंद्र में ज्यादा समावेशी सरकार बनेगी और क्या संघवाद की जिस अवधारणा को पिछले 10 साल से चुनौती मिल रही थी वह चुनौती समाप्त हो जाएगी? क्या संस्थाओं की स्वायत्तता फिर से बहाल हो जाएगी? क्या व्यक्ति केंद्रित राजनीति का दौर अब समाप्त हो जाएगा?

लोकतंत्र में पार्टियों की भूमिका सिर्फ चुनाव लड़ने की नहीं होती है, बल्कि उन्हें सामाजिक बदलावों को भी दिशा देनी होती है और आम नागरिकों को सजग, जागरूक बनाने का काम भी करना होता है। लेकिन पिछले 10 साल में भाजपा चुनाव लड़ने की मशीनरी बन कर रह गई है। सहज राजनीति के दिनों में भाषणों की गरमी गरमी या कटुता सिर्फ चुनाव के समय देखने को मिलती थी। लेकिन पिछले कुछ समय से यह राजनीति का स्थायी भाव बन गया था।

इस बार लोकसभा चुनाव में भी पूरे देश में यह देखने को मिला कि चुनाव विपक्षी पार्टियां नहीं, बल्कि जनता लड़ रही थी। जनता ने ही भाजपा की एकतरफा राजनीति पर विराम लगा दिया है और विपक्ष को इतनी ताकत दी है कि वह भाजपा से प्रतिस्पर्धा कर सके। कह सकते हैं कि विकल्पहीनता यानी ‘देयर इज नो ऑल्टरनेटिव’ का फैक्टर समाप्त हो सकता है। यह भी सहज राजनीति के दिनों की वापसी का संकेत है।

चुनाव के मैदान में प्रतिस्पर्धा लौटी है तो संसद के अंदर भी विपक्ष की ताकत इतनी बढ़ गई है कि सरकार पहले की तरह संसदीय परंपराओं को ताक पर रख कर काम नहीं कर पाएगी। संसदीय समितियों में भी विपक्ष की हैसियत बढ़ेगी। विपक्ष को राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में भाजपा के मुकाबले में लगभग बराबरी पर लाकर मतदाताओं ने यह भी सुनिश्चित कर दिया है कि मीडिया भी विपक्ष की अनदेखी नहीं कर सके। इससे प्रशासन और विधायी कामकाज दोनों में चेक एंड बैलंस की पारंपरिक व्यवस्था बहाल हो सकती है।

भारत में राजनीति हमेशा नेता के करिश्मे पर ही केंद्रित रही है और ज्यादातर नेताओं  ने चुनाव जीतने के बाद मनमानी ही की है। फिर भी उम्मीद की जा सकती है कि पिछले 10 साल में जिस तरह से राजनीति और शासन का नैरेटिव सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ईर्द गिर्द केंद्रित हो गया था उसमें बदलाव आएगा। 

उम्मीद की जा सकती है कि सत्ता का केंद्रीकरण पहले की तरह नहीं होगा। सत्ता विकेंद्रित होगी और संघवाद की अवधारणा के सामने जैसी चुनौती खड़ी हो गई थी वह समाप्त होगी। केंद्रीय जांच एजेंसियों सहित तमाम संवैधानिक या वैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता बहाल होने की उम्मीद भी जा सकती है। केंद्र में एक पार्टी की मजबूत सरकार नहीं बनने के बाद फिर से न्यायिक सक्रियता के पुराने दौर की वापसी भी संभव है। यह अच्छा होगा या बुरा यह देखने वाली बात होगी।

गठबंधन सरकारों ने उदार, समावेशी और आकांक्षी लोकतंत्र को मजबूत किया था और भारत को विकास के रास्ते पर आगे बढ़ाया था। अब 10 साल के बाद फिर एक बार मतदाताओं ने गठबंधन की सरकार का जनादेश दिया है तो उम्मीद करनी चाहिए कि जो भी सरकार बनेगी वह इसका सम्मान करेगी।

दरअसल भारत जैसे बड़े देश में आज राज्यों की अलग-अलग समस्याएं और जरूरतें हैं. उनकी अलग-अलग सांस्कृतिक-भाषायी बुनावट है. ऐसे में उनके स्थानीय मुद्दे उठाने वाली पार्टियां अहम हो जाती हैं. यही वजह है कि आज BJP, कांग्रेस जैसी मजबूत पार्टियों के बीच भी क्षेत्रीय पार्टियां दिल्ली में सत्ता के ताले की चाबी बनी हुई हैं.

क्षेत्रीय पार्टियों की केंद्र में भूमिका पर तमाम बहस हैं. कुछ लोग इन्हें ताकत पर लगाम लगाने की भूमिका के चलते लोकतंत्र के लिए बेहतर बताते हैं. कहते हैं कि ताकत का विकेंद्रीकरण जरूरी है. वहीं दूसरे मत इन्हें कड़े फैसले ना होने, या उन्हें लेने में देरी के लिए जिम्मेदार बनाते हैं, जहां गठबंधन धर्म सभी पार्टियों में एकमत बनाने के लिए बाध्य करता है. जिसमें समय लगता है.

खैर आपका जो भी मत हो, सच्चाई यही है कि भारत में बीते 35 साल, मतलब 1989 से लगातार गठबंधन की सरकारें ही बनी हैं. भले 2014 और 2019 में BJP को दरकार ना रही हो, फिर भी गठबंधन जारी रहे और आज 2024 में फिर गठबंधन की जरूरत केंद्र में है. लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए मजबूत विपक्ष बहुत जरूरी होता है, वरना सत्तापक्ष में लोग घमंडी और स्वार्थी होने लगते हैं, इतने कि उनके पांव जमीन पर पड़ने बंद हो जाते हैं।

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