अब राहुल को बूढ़े लाचार क्षेत्रीय क्षत्रपों से छुटकारा पा ही लेना होगा, हरियाणा की हार का यही सबक है

ब्रजेश चतुर्वेदी

नई दिल्ली।(आवाज न्यूज ब्यूरो) राहुल गांधी दो दशक से सांसद हैं। अमेठी एवं वायनाड से सांसद रह चुके है। रायबरेली के सांसद के साथ ही नेता प्रतिपक्ष भी हैं। देश में हजारों किलोमीटर की दो बड़ी यात्रा करके जनता की समस्या को समझा और लगातार देश की समस्याओं को भी सदन एवं सदन के बाहर उठा रहे हैं। पद यात्राओं से राहुल की छवि बदली है। जिसका लाभ कांग्रेस को भी मिल रहा है और सत्ता पक्ष पर दवाब भी बढ़ा है। यही नहीं राहुल की लोकप्रियता में भी निरंतर बढ़ोतरी हो रही है। कई राज्यों में मोदी के बराबर या मोदी के आगे भी लोकप्रियता सर्वे में आयी है। राहुल की ईमानदारी और जनता के प्रति प्रतिबद्धता पर न शंका की जा सकती है और न ही ऊँगली उठाई जा सकती है। कल तक सांसद के रूप में बयान को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा था। नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद राहुल के सवालों और आरोपों को गंभीरता से लेना सत्ता पक्ष की मजबूरी हो गया है।

पद यात्रा के बाद निखरी छवि और लोकप्रियता से लोकसभा चुनाव से पहले गठित इंडिया गठबंधन में भी राहुल की स्वीकार्यता बढ़ी है। 2024 लोकसभा चुनाव में संविधान, आरक्षण, दलितों पिछड़ों अल्पसंख्यकों की भागीदारी तथा अडानी-अम्बानी पर तीखे प्रहार से भाजपा को नुकसान हुआ और तीसरी बार नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बहुमत की सरकार नहीं बनी। आकड़ें 240 तक ही रह गए। नायडू और नीतीश के समर्थन से भाजपा की सरकार चल रही है। लोकसभा में इंडिया गठबंधन के सीटों की संख्या 236 है जिसमें कांग्रेस के सबसे अधिक 100 सांसद हैं। लोकसभा चुनाव परिणाम आने और नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद राहुल गाँधी का आत्मविश्वास बढ़ा है और वह लगातार देश हो या विदेश सब जगह अपने भाषणों में मोदी सरकार के खिलाफ आक्रामक तेवर बनाये हुए हैं। दवाब में चल रही केंद्र सरकार को विपक्ष के विरोधों के कारण कई कानून/विधयक पर पीछे भी हटना पड़ा। राहुल भाषणों में कहते है कि उन्होंने मोदी का आत्मविश्वास तोड़ दिया है। उनकी आक्रामक शैली से पूरे देश में ऐसा परसेप्शन बन चुका है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ ईमानदारी से एक ही नेता लड़ रहा है जिसका नाम है राहुल गाँधी।

लोकसभा चुनाव के बाद यह माना जा रहा था कि राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा को शिकस्त मिलेगी, इस परसेप्शन के अनुसार ही यह आरोप लग रहा था कि भाजपा हरियाणा, जम्मू कश्मीर के साथ ही महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव हार के डर कारण नहीं करा पा रही। हरियाणा और जम्मू कश्मीर के चुनाव परिणाम आ चुके है और कांग्रेस को हरियाणा में करारा झटका लगा और भाजपा ने सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए तीसरी बार सरकार बनाई जबकि 2019 में बहुमत नहीं था। चुनाव में जो रिपोर्ट आ रही थी और जो एग्जिट पोल में भी कांग्रेस की भारी जीत दिखाई दी वह सब भी फेल हो गए हैं। हार के बाद कांग्रेस आयोग व प्रशासन पर 12-14 सीटों पर हराने का आरोप लगा रही है। ऐसे आरोप हर चुनाव परिणाम आने के बाद लगते रहते है लेकिन हरियाणा के चुनाव ने राहुल गाँधी को एक सबक दिया है। एकला चलो सिंद्धांत से न तो इंडिया गठबंधन मजबूत होगा और न ही कांग्रेस को राज्यों में जीत हासिल होगी।

राहुल की सबसे बड़ी कमजोरी निर्णय न लेना और संजय गाँधी के समय से चले आ रहे पुराने क्षत्रप नेताओं को राज्यों के चुनाव की जिम्मेदारी देना है। राहुल की दो दशक में भी कोई जमीनी संगठन से जुड़ी और संघर्ष करने वाली टीम नहीं है। विदेशों में चाचा सैम पित्रोदा जो पढ़ाते-सिखाते है, वह बोलते है और देश के अंदर वेणु गोपाल, जयराम रमेश सहित जो भी टीम है उसे देश के राजनीतिक हालत की न पहचान है, न पकड़, न मेहनत, न ही संघर्ष करने की क्षमता। हरियाणा के चुनाव परिणाम ने साबित कर दिया है कि राहुल गाँधी में ईमानदारी, कमजोर वर्गों के उत्थान के लिए उनका संकल्प है लेकिन उनकी सबसे बड़ी कमजोरी यह है कांग्रेस पार्टी की संगठनात्मक मजबूती, संघर्ष एवं जझारू नेताओं, कार्यकर्ताओं की टीम बनाने में वे विफल रहे है। पार्टी ने उन्हीं पुराने क्षत्रपों के सहारे राज्यों को छोड़ दिया है जिन्होंने सत्ता में रहते हुए अकूत संपत्ति बनाई, जो सीबीआई, ईडी के जांच के घेरे में है। बूढ़े हो चुकने के कारण संघर्ष की क्षमता खो चुके है। अपने परिवार के बेटे-बेटियों को आगे बढ़ाने में लगे हैं। ऐसे बुड्ढे क्षत्रपों के कंधो पर विधानसभा चुनाव की कमान रख देना, राहुल की सबसे बड़ी असफलता है। हरियाणा का चुनाव इसका सबसे ताजा उदाहरण है। उन्होंने हरियाणा को हुड्डा के भरोसे छोड़ दिया। हुड्डा कौन है यह सभी जानते हैं। 10 वर्ष मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने करोड़ो की सम्पति अर्जित की। परिवार बढ़ाने के लिए बेटे को सांसद बनाया। यही नहीं कांग्रेस की कमजोर कड़ी रॉबर्ट वाड्रा को जमीनों का साझेदार बनाया जिससे नेहरू गाँधी परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और  वाड्रा की पत्नी होने के नाते प्रियंका भी आरोपों के घेरे में आ गयी।

77 वर्षीय सत्ता लोलुप परिवारवादी जांच एजेंसियों के शिकंजों के बीच फंसे 77 वर्षीय भूपेंद्र सिंह हुड्डा के सहारे हरियाणा को छोड़ना हार का सबसे बड़ा कारण है। 10 वर्षों तक कांग्रेस सत्ता से बाहर रही और हुड्डा या कांग्रेस विपक्ष की भूमिका निभाने में भी असफल रही। जाट समुदाय से आने वाले हुड्डा को टिकट बंटवारे और अघोषित रूप से मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने के कारण गैर जाट वोट और दलित नेता शैलजा को अपमानित करने से दलितों की नाराजगी का भी खामियाज़ा कांग्रेस को भुगतना पड़ा।

मोदी और राहुल के बीच निर्णय लेने और चुनाव जीतने की रणनीति का विश्लेषण करें तो मोदी के सामने राहुल निर्णय लेने और रणनीति बनाने दोनों में काफी कमजोर है। हरियाणा में किसान जवान और महिला पहलवानों की जबरदस्त नाराजगी को देखते हुए मोदी ने कठोर और समीकरण साधने वाले निर्णय लिए। साढ़े नौ वर्षों तक मुख्यमंत्री रहे मनोहर लाल खट्टर के बारे मोदी ने खुद बताया था कि वह प्रचारक के रूप में खट्टर के स्कूटर के पीछे बैठ कर घूमते थे। ऐसे रिश्तों वाले राजनीतिक दोस्त को हटाने में मोदी ने संकोच नहीं किया। उनके स्थान पर पिछड़ें वर्ग से आने वाल नायब सिंह सैनी को कमान सौंप दी। कमजोर प्रत्याशी के टिकट काटे और कम समय में भी किसान जवान और खिलाडियों के लिए नायब सिंह सैनी को विभिन्न योजनाएं चलाने का निर्देश दिया। बड़े नेता, संगठन के पदाधिकारियो ने चुनाव जीतने के लिए सारी ताकत, हथकंडे लगा दिए। जिसका लाभ भी भाजपा को मिला।

दूसरी तरफ राहुल गाँधी ने बुड्ढे हुड्डा के कंधो पर प्रत्याशी चयन और चुनाव को छोड़ दिया। दलित नेता शैलजा व अन्य गैर जाट नेता उपेक्षित रहे। 10 वर्षो से सत्ता में रही भाजपा के खिलाफ जनता की नाराजगी को राहुल के निर्णयों के कारण ही भाजपा की जीत का मार्ग प्रशस्त हुआ। मोदी की तरह अगर राहुल गाँधी भी हरियाणा चुनाव में जाट और गैर जाट नेताओं के साथ जिताऊ प्रत्याशी चयन करते, समय देते तो निश्चित रूप से हरियाणा का चुनाव परिणाम बदल भी सकते थे। यही नहीं हरियाणा एक सबक है इससे राहुल गाँधी को सीखना चाहिए वैसे भी यह उनकी पहली गलती नहीं है। इस तरह कांग्रेस ने भाजपा से सीधी लड़ाई वाले सभी राज्य बुड्ढे क्षत्रपो मध्य प्रदेश- कमल नाथ, दिग्विजय सिंह, राजस्थान- अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ में अहंकारी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को खुली छूट देकर गंवा चुके है। इन तीन राज्यों में नेताओं की सीबीआई, ईडी के घेरे में अकूत सम्पति है। इसलिए वे कभी मोदी शाह से सीधी लड़ाई लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। कांग्रेस को जिन तीन राज्य में जीत मिली है उनमें कर्नाटक में डी की शिवकुमार के संघर्ष, प्रबंधन और सिद्धारमैया की ईमानदार साफ़ सुथरी छवि के कारण मिली है। तेलंगाना में हुड्डा कमलनाथ और गहलोत जैसा बुड्ढा चेहरा नहीं था। केसीआर से जनता नाराज थी और कांग्रेस ने रेवंथ रेड्डी आगे किया। वह राहुल गाँधी जैसा युवा है। अच्छी छवि थी। जिसके कारण कांग्रेस जीती। हिमाचल की जीत भी कांग्रेस में बुड्ढा विहीन क्षत्रप होने के कारण मिली। यह जरूर है कि इन तीनों राज्यों की जीत में राहुल गाँधी का चेहरा अहम् था लेकिन राहुल का चेहरा और उनकी छवि तभी काम आयी जब क्षेत्रीय नेता संघर्ष करने वाले नये चेहरे और साफ़ सुथरी छवि के थे।

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