बृजेश चतुर्वेदी
महाराष्ट्र विधान सभा के चुनाव परिणामों ने सिर्फ प्रदेश ही नहीं, देश की राजनीति को एक नए मोड़ पर ला खड़ा किया है। चुनाव आयोग की साख पहले से भी ज्यादा गिर गई है क्योंकि ये परिणाम ऐसे हैं जिस पर विश्वास करना किसी के लिए भी कठिन है। विपक्ष ही नहीं सामान्य लोग भी चकित हैं कि चुनाव प्रचार के दौरान जो कुछ दिख रहा था, वोटों की गिनती के समय ठीक उसका उलटा नजर आया। शिव सेना नेता उद्धव ठाकरे का यह सवाल जायज है कि उनकी सभाओें में जो भीड़ आ रही थी क्या वह पहले से तय कर चुकी थी कि उन्हें वोट नहीं देगी।
अगर वह यह तय कर चुकी थी तो वह उनकी सभाओं में क्यों आ रही थी? यह सच है कि उनकी सभाएं प्रधानमंत्री की सभाओं के मुकाबले ज्यादा उत्साह से भरी थीं। प्रधानमंत्री मोदी की सभाओं के फीकेपन को इन सभाओें के वीडियो में अब भी देखा जा सकता है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी तथा एनसीपी नेता शरद पवार की सभाएं भी जोरदार रहीं। क्या जनता धूर्त हो गई है और एक साजिशनुमा तरीके से काम करती है?
भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली महायुति (नेशनल डेमोक्रेटिक एलाएंस का स्थानीय संस्करण) को 78 प्रतिशत से ज्यादा सीटें मिली हैं। जहां भाजपा ने 132 के साथ रिकॉर्ड सीटें जीत ली है, वहीं कांग्रेस ने 15 सीटें पाकर राज्य के चुनावी इतिहास का अपना सबसे ज्यादा खराब प्रदर्शन किया है।
ये चुनाव परिणाम असाधारण हैं। इसलिए इन चुनाव परिणामों का विश्लेषण भी विशेष तरीके से होना चाहिए। एक बात तो साफ दिखाई देती है कि भाजपा को राज्य भर में सफलता मिली है। इसका मतलब है कि वोटों के बंटवारे में कोई क्षेत्रीय फैक्टर नहीं था। अब तक माना जाता था कि विदर्भ कांग्रेस का गढ़ है और पश्चिम महाराष्ट्र एनसीपी का। कोंकण को छोड़ दें तो भाजपा या उसके सहयोगी दलों-एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजीत पवार की एनसीपी का अपना कोई गढ़ नही है।
इन चुनाव परिणामों ने उन्हें किसी क्षेत्र-विशेष ही नहीं, पूरे राज्य को अपना गढ़ घोषित करने का हक दे दिया है। अब उन्हें कोई यह चुनौती नहीं दे सकेगा कि राज्य में उनका व्यापक जनाधार नहीं है। क्या महाराष्ट्र गुजरात के रास्ते पर चल पड़ा है जहां विपक्ष नाम की कोई चीज नहीं रह गई है? क्या राजनीति का गुजरात मॉडल देश के बाकी हिस्सों में भी चलेगा? इसका एक नज़ारा हम लोकसभा चुनावों में सूरत में देख चुके हैं जहां बीजेपी उम्मीदवार बिना चुनाव के ही जीत गया था।
कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन के इस सफाए को लेकर तमाम किस्म की बहस हो रही है। भाजपा समर्थक मीडिया यही प्रचार कर रहा है कि लडकी बहिनी योजना ने महिलाओं तथा उनके परिवार के सदस्यों को लुभाने में अहम भूमिका निभाई। कई लोग इसे भाजपा के चुनाव-प्रबंधन का कमाल मान रहे हैं। कुछ लोग यह बताने में मशगूल हैं कि ‘एक हैं तो सेफ हैं’ के नारे ने अपना चमत्कार दिखाया।
कुछ लोग कह रहे हैं कि मराठा आंदोलन ने ओबीसी के एक बड़े तबके में असुरक्षा की भावना पैदा की और यह उन्हें भाजपा की ओर ले आया है। इस तर्क में ज्यादा दम दिखाई नहीं देता। महायुति के तीन शीर्ष नेताओं-देवेंद्र फडनवीस, एकनाथ शिेंदे और अजीत पवार में कोई भी ओबीसी नहीं हैं। यही नहीं महायुति की सरकार ने मराठों को ओबीसी कोटे में आरक्षण का रास्ता निकालने का आश्वासन दे रखा है जिसे लेकर उस तबके में काफी चिंता है।
जाहिर है कि इस बड़ी पराजय के बाद भाजपा ने राहुल गांधी को निशाना बनाया है। वह संविधान की रक्षा करने के उनके दावे को चुनौती दे रही है, साथ ही कह रही है कि लोगों ने गांधी परिवार को खारिज कर दिया है। वायनाड लोकसभा क्षेत्र, झारखंड विधान सभाओं के चुनाव और देश के विभिन्न हिस्सों के उपचुनाव तो यही बतलाते हैं कि राहुल गांधी और उनके परिवार के प्रति लोगों में अविश्वास जैसी कोई भावना नहीं है।
अगर हम झारखंड और महाराष्ट्र के चुनाव-परिणामों को एक साथ देखें तो कई चीजें स्पष्ट हो जाती हैं। झारखंड के परिणामों ने यह साफ दिखा दिया है कि प्रधानमंत्री मोदी में वोट खींचने की वैसी क्षमता नहीं है जैसी पहले थी। उन्हें हेमंत सोरेन जैसे नौजवान नेता ने पटखनी दे दी। महाराष्ट्र में तो उन्हें शरद पवार और उद्धव ठाकरे से चुनौती मिल रही थी। इस राज्य में उद्योगों को गुजरात स्थानांतरित करने का मुद्दा भी गरम था और इसकी वजह से लोग उनसे नाराज थे। ऐसे में वोटों की ऐसी बंपर फसल कैसे उग आई?
इस तर्क में भी दम नजर नहीं आता कि लोगों ने एकनाथ शिंदे की शिव सेना को असली शिवसेना और अजीत पवार की एनसीपी असली एनसीपी मान लिया है। लोग यही काम लोकसभा चुनावों में कर सकते थे। कांग्रेस के मामले में तो ऐसी कोई बात भी नहीं थी।
चुनाव की तारीख तय करने, नफरती प्रचार को बेरोकटोक चलने देने और विपक्ष के लगातार दबाव के बावजूद राज्य के डीजीपी को बदलने में देरी करने के उदाहरणों ने चुनाव आयोग के पक्षपात पूर्ण रवैए को ही दिखाया है। इसलिए यह संदेह वाजिब है कि प्रशासन की मदद से सत्तारूढ गठबंधन ने वोटों की हेराफेरी की है। अब आयोग की जिम्मेदारी है कि वह अपनी निष्पक्षता का विश्वास दिलाए।आयोग ऐसी कोई पहल करेगा इसकी उम्मीद न के बराबर है लेकिन गठबंधन को मिले इस विशाल बहुमत से प्रदेश में सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक स्थिरता नहीं आने वाली है। महाराष्ट्र की बनावट ऐसी है कि विपक्ष की भागीदारी के बिना सरकार नहीं चलाई जा सकती है। चुनाव परिणामों ने राज्य को अस्थिरता के एक बुरे दौर में धकेल दिया है। इससे देश की राजनीति भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगी। शिंदे की शिवसेना और अजीत पवार की एनसीपी के चुनाव जीत जाने से इन पार्टियों के नेतृत्व का सवाल हल नहीं हुआ है और न ही अस्तित्व का उनका संघर्ष खत्म हुआ है। बीजेपी उन्हें निगल लेगी यह आशंका उनके नेतृत्व और कार्यकर्ता, दोनों को सताए है।