नेताओं की देशभक्ति की अग्निपरीक्षा, सेना में बेटा भेजो, पेंशन लो!

भारत में एक बार विधायक या सांसद बन जाना आजीवन पेंशन की गारंटी बन चुका है, चाहे उनका संसदीय रिकॉर्ड शून्य क्यों न हो। वहीं, सीमाओं पर तैनात सैनिक हर रोज़ जान जोखिम में डालते हैं, लेकिन उनके परिवारों को न्यूनतम सुविधाएं भी संघर्ष से मिलती हैं। सवाल उठता है – क्या नेताओं की देशभक्ति सिर्फ भाषणों और नारों तक सीमित है? क्यों नहीं उनके बेटे-बेटियां सेना में भर्ती होते? अगर आम जनता अपने बच्चों को देश सेवा के लिए भेज सकती है, तो नेता सिर्फ ‘वोट’ नहीं, ‘बलिदान’ भी दें। वक्त आ गया है कि नेताओं की पेंशन को सेना सेवा से जोड़ा जाए – ताकि देशभक्ति सिर्फ मंच की बातें न रह जाए, बल्कि जीने का सच्चा प्रमाण बने।

— डॉ. सत्यवान सौरभ

“पेंशन नहीं, पराक्रम दो: नेताओं की देशभक्ति का असली टेस्ट”

नई दिल्ली।(आवाज न्यूज ब्यूरो)। देशभक्ति का ज़ोर जब चुनावी भाषणों में सिर चढ़कर बोलने लगे और हर गली-चौराहे पर तिरंगे का रंग दिखने लगे, तब हमें थोड़ा रुककर यह सोचना चाहिए कि यह प्रेम किसके लिए है – देश के लिए या कुर्सी के लिए? क्योंकि जिनके मुँह में हर पल ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम्’ है, उनके बच्चे किसी इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ते हैं, विदेश में नौकरी करते हैं, और कभी गलती से भी सीमा की तरफ नहीं देखते। लेकिन वही नेता, जब जनता से त्याग और बलिदान माँगते हैं, तो आत्मा काँप जाती है।

भारत में एक बार विधायक या सांसद बन जाने का मतलब है – “रिटायरमेंट सेट है भाई!” एक बार कुर्सी मिली, तो ज़िंदगीभर पेंशन, बंगला, सुरक्षा, गाड़ी, ड्राइवर, और ‘माननीय’ की उपाधि मुफ्त में। चाहे संसद में आपने एक भी सवाल न पूछा हो, चाहे सदन की कार्यवाही में सिर्फ झपकी ली हो, चाहे जनता आपको अगले चुनाव में बाहर का रास्ता दिखा दे – पेंशन मिलती ही मिलती है!

क्या आपने कभी सुना कि एक सैनिक, जो सियाचिन में तैनात था और तीन साल में घर आया, उसे जीवन भर की पेंशन मिल गई हो? नहीं ना? उसे हर सेवा वर्ष का हिसाब देना पड़ता है। उसे शहीद होने पर भी ‘मुआवजे’ की फाइलें घूमती हैं।

देशभक्ति की बात करते समय नेता अक्सर कहते हैं – “हम तो देश के लिए जान देने को तैयार हैं!” पर यह ‘हम’ कौन है? उनके बच्चे कहाँ हैं? क्यों नहीं कोई ‘माननीय पुत्र’ सीमा पर तैनात है? क्यों नहीं कोई ‘राजकुमारी’ मेडिकल कोर में है? सच्चाई यह है कि ये नेता देशभक्ति को अपनी राजनीतिक दुकान के प्रमोशनल पोस्टर की तरह इस्तेमाल करते हैं, और उनके बच्चे उस दुकान से मुनाफा उठाते हैं।

अगर देश में जनता को मुफ्त राशन के लिए आधार-OTP देना पड़ता है, तो नेता की पेंशन के लिए भी एक शर्त होनी चाहिए – “पेंशन तभी मिलेगी, जब आपके परिवार का कोई सदस्य सेना में सेवा देगा।”

कल्पना कीजिए क्या दृश्य होगा: एक विधायक के बेटे की यूनिफॉर्म की पहली प्रेस हो रही है, एक सांसद की बेटी बूट पहन रही है, एक मंत्री का पोता हथियार चलाने की ट्रेनिंग ले रहा है। क्या तब उनके बयानों में सच्ची देशभक्ति नहीं दिखेगी?

देश की सबसे कठिन सेवा – सेना की सेवा – को गरीब, मध्यम वर्ग के बच्चे निभाते हैं। वो जिनके पास न जुगाड़ है, न सुरक्षा। वो भर्ती में दौड़ते हैं, दौड़ते हुए मर भी जाते हैं। कोई कैमरा नहीं आता, कोई चैनल ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं दिखाता। दूसरी ओर नेता के बच्चे अगर विदेश में शराब पीते पकड़े जाएं, तो भी नेता कहता है – “बेटा थोड़ा भटक गया, अब अमेरिका भेज रहे हैं पढ़ने।” भाई, अगर ‘भटकने’ की सजा विदेश है, तो ‘सीधे’ लोगों को सजा क्यों?

हर बार चुनाव के समय सेना की तस्वीरें, सैनिकों की कहानियाँ, शौर्य गाथाएं पोस्टरों पर होती हैं। सर्जिकल स्ट्राइक का श्रेय लेने में हर दल आगे है, लेकिन उस ऑपरेशन में जान गंवाने वाले सैनिक का नाम किसी को याद नहीं। नेताओं को सेना सिर्फ इमोशनल वोट बैंक लगती है – जब ज़रूरत हो, तो उनकी वर्दी का इस्तेमाल करो, जब चुनाव जीत जाओ, तो उनका हाल पूछना भी गुनाह मानो।

अगर सच में ये देशभक्ति दिल से है, तो नेताओं को पेंशन की जगह एक प्रमाण पत्र देना चाहिए कि उनके परिवार से कोई सदस्य सेना में सेवा दे रहा है या दे चुका है। ये एक नया कानून होना चाहिए – सिर्फ पेंशन के हक के लिए नहीं, बल्कि असली देशप्रेम का सबूत देने के लिए।

एक बार एक नेता जी भाषण दे रहे थे – “अगर पाकिस्तान आँख उठाएगा, तो हम आँख निकाल लेंगे!”

एक नौजवान खड़ा हुआ और बोला – “आपका बेटा कौन-सी यूनिट में है साहब?”

नेता जी मुस्कराए – “वो तो इंजीनियरिंग कर रहा है, विदेश जाना है उसे…”

जनता हँसी नहीं, रोई। क्योंकि देशभक्ति अब सिर्फ ‘नारा’ बन गई है, ‘नियति’ नहीं।

देशभक्ति अगर सिर्फ भाषणों तक सीमित रह जाए, तो वह ‘वोटबैंक की दुकान’ बन जाती है। जब तक नेता और उनका परिवार उस देशभक्ति को जीते नहीं, तब तक हमें उनके भाषणों पर तालियाँ नहीं, सवाल उठाने चाहिए। नेताओं को पेंशन से ज्यादा जिम्मेदारी चाहिए, और उनके बच्चों को भाषण से ज्यादा बूट। देश को सिर्फ जनता नहीं, नेता भी बराबर दें – त्याग, परिश्रम और बलिदान।

देशभक्ति भाषणों से नहीं, भागीदारी से साबित होती है।

जब तक नेताओं के बच्चे सेना की वर्दी नहीं पहनते, तब तक उनके ‘बलिदान’ के बोल खोखले लगते हैं। पेंशन कोई सम्मान नहीं, एक ज़िम्मेदारी होनी चाहिए – जो तभी मिले, जब परिवार भी राष्ट्र सेवा में उतरे। आम नागरिक के टैक्स पर ऐश करना बंद हो, अब बारी है नेता भी हिस्सा लें – सरहद पर, ज़मीन पर, और ज़िम्मेदारी में। वर्ना जनता सिर्फ सुनती रहेगी, और देश सेवा का बोझ उठाते रहेंगे वही, जिनके पास न ताक़त है, न पहचान – सिर्फ जुनून है।

Check Also

आरएसएस जन्म से ही आरक्षण और जाति जनगणना के खिलाफ : भाजपा के आरोपों पर खरगे का पलटवार

नई दिल्ली।(आवाज न्यूज ब्यूरो)। केंद्र सरकार ने जाति जनगणना और राष्ट्रीय जनगणना को एक साथ …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *