बिन बेटी तू था कहाँ, इतना तो ले सोच । यही वंश की बेल है, इसको तो मत नोच ।।

जीवन में आनंद का, बेटी मंतर मूल ।

इसे गर्भ में मारकर, कर ना देना भूल ।।

बेटी कम मत आंकिये, गहरे इसके अर्थ ।

कहीं लगे बेटी बिना, जगती सारी व्यर्थ ।।

बेटी होती प्रेम की, सागर सदा अथाह ।

मूरत होती मात की, इसको मिले पनाह ।।

बेटी माँ का रूप है, मन ज्यों कोमल फूल ।

कोख पली को मारकर, चुनो न खुद ही शूल ।।

बेटी घर की लाज है, आँगन शीतल छाँव ।

चलकर आती द्वार पर, लक्ष्मी इसके पाँव ।।

बेटी चढ़े पहाड़ पर, गूंजे नभ में नाम ।

करती हैं जो बेटियाँ, बड़े-बड़े सब काम ।।

बेटी से परिवार में, पैदा हो सम-भाव ।

पहले कलियाँ ही बचें, अगर फूल का चाव ।।

बिन बेटी तू था कहाँ, इतना तो ले सोच ।

यही वंश की बेल है, इसको तो मत नोच ।।

हर घर बेटी राखिये, बिन बेटी सब सून ।

बिन बेटी सुधरे नहीं, घर, रिश्ते, कानून ।।

बेटे को सब कुछ दिया, खुलकर बरसे फूल ।

लेकिन बेटी को दिए, बस नियमों के शूल ।।

सुरसा जैसी हो गई, बस बेटे की चाह ।

बिन खंजर के मारती, बेटी को अब आह ।।

झूठे नारों से भरा, झूठा सकल समाज ।

बेटी मन से मांगता, कौन यहाँ पर आज ।।

बेटी मन से मांगिये, जुड़ जाये जज्बात ।

हर आँगन में देखना, सुधरेगा अनुपात ।।

झूठे योजन हैं सभी, झूठे हैं अभियान ।

दिल में जब तक ना जगे, बेटी का अरमान ।।

अब तो सहना छोड़ दो, परम्परा का दंश ।

बेटी से भी मानिये, चलता कुल का वंश ।।

बेटी कोमल फूल-सी, है जाड़े की धूप ।

तेरे आँगन में खिले, बदल-बदलकर रूप ।।

सुबह-शाम के जाप में, जब आये भगवान ।

बेटी घर में मांगकर, रखना उनका मान ।।

—  सत्यवान ‘सौरभ’

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