दरअसल आजकल लोग जातिवाद के चलते चौपाई और श्लोकों के गलत अर्थ निकालने लगे हैं। उसके संदर्भ को काटकर वे उसके भाव को नहीं पकड़ते हैं। प्राचीन काल के गुरुकुल में हर जाति और संप्रदाय का व्यक्ति पढ़कर उच्च बनता था। वेदों को लिखने वाले ब्राह्मण नहीं थे। वाल्मीकि रामायण किसी ब्राह्मण ने नहीं लिखी। महाभारत और पुराण लिखने वाले वेद व्यास जी निषाद कन्या सत्यवती के पुत्र थे। रामचरितमानस हिंदुओं के लिए सिर्फ धार्मिक ग्रंथ ही नहीं बल्कि जीवनदर्शन है और संस्कारों से जुड़ा हुआ है। मानस कोई पुस्तक नहीं बल्कि मनुष्य के चरित्र निर्माण का विश्वविद्यालय है और लोगों के कार्य , व्यवहार में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है।
-डॉ सत्यवान सौरभ
जब रामायण में प्रभु श्री राम के बारे में पढ़ते हैं और जो वर्तमान समाज में राम को जातीय, राजनीति के आधार पर बांटते है तो दोनों में जमीन आसमान का फर्क है। राम जैसा कोई नहीं वह सबका हित चाहते थे। भरत के लिए आदर्श भाई, हनुमान के लिए स्वामी, प्रजा के लिए नीति-कुशल व न्यायप्रिय राजा, सुग्रीव व केवट के परम मित्र और सेना को साथ लेकर चलने वाले व्यक्तित्व के रूप में भगवान राम को पहचाना जाता है। उनके इन्हीं गुणों के कारण उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम से पूजा जाता है। आज यदि हम अपने अंदर झांक कर देखे कि क्या हमारे अंदर उनके जैसा एक गुण भी मौजूद है? नहीं, तो फिर हम उन्हें सिर्फ राजनीतिक मनसा को पूरा करने के लिए उनके नाम पर राजनीति क्यों करें?
राम त्याग के प्रतिमूर्ति है क्या कोई अपना सर्व निछावर कर के दूसरो के हित चाहेगा? दुनिया मे ऐसा कोई इंसान नही जो उनकी जगह ले सके। राम तो राम है और राम से बड़ा उनका नाम है। इसलिये घिनौनी मनसा लेकर राजनीति करना बंद करें।। राम किसी विशेष जाति के लिए नहीं बने जो उन्हें निर्मल मन से भजता है, राम को वही प्रिय है। रामचरितमानस पर चल रहे विवाद के संदर्भ में सोचे तो क्या सैंकड़ों साल पहले लिखे गए इस महाकाव्य में क्या किसी ब्राह्मणवादी या किसी पुरुषवादी ने छेड़छाड़ नहीं की होगी? जो महाकवि अपने काव्य में कई उदात्त चरित्रों को गढ़ता है उसके मन में क्षुद्र विचार कैसे आ सकते हैं? जो अपने नायक को भीलों को गले लगाना,शबरी के जूठे बेर खाना ही नहीं तिरस्कृत स्त्री अहिल्या को सम्मान दिलाने जैसे प्रसंग लिखता है, वह शूद्रों और स्त्री के विरोधी शब्दों को कैसे लिख सकता है?
जिसने खुद तत्कालीन ब्राह्मण समाज का बहिष्कार किया और भाषाई स्तर पर विद्रोह किया। वह ब्राह्मणों का ऐसा समर्थक कैसे हो सकता है कि ‘ पूजिए विप्र ज्ञान गुण हीना ‘ लिख दे? हो सकता है कि ढोल, गंवार, शूद्र पशु, नारी की जगह तुलसीदास जी ने ढोल, गंवार, क्षुब्ध पशु, रारी लिखा हो? और किसी कुढ़मगज ने उसे अपने चिंतन के अनुरूप कर लिया हो? हमें रामचरितमानस का फिर से गहन संपादन करना होगा और इस तरह कि कवि की प्रवृत्ति के विपरीत दोहे और चौपाइयों को समझकर और सुधार के प्रस्तुत करना होगा। यह इसलिए भी बहुत जरूरी है क्योंकि रामचरितमानस केवल एक महाकाव्य ही नहीं भारतीय समाज के द्वारा सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला ग्रंथ भी है और आप किसी अनपढ़ व्यक्ति के मुंह से भी मानस की चौपाइयां सुन सकते हैं।कहने का तात्पर्य यह कि भारतीय जनमानस से रामचरितमानस को निकाला नहीं जा सकता। हां, इसका संशोधित संस्करण जरूर प्रचलित किया जा सकता है।
घर में उनकी उपस्थिति मात्र से शुभ संयोग बने रहते हैं। हर आस्तिक और नास्तिक सनातनी के घर में रामचरितमानस और श्रीमद् भागवत गीता होनी चाहिए। आस्था के लिए पढ़ें या ज्ञान ग्रहण करने के लिए। अपने अपने उपयोग हो सकते हैं। व्यवहार कुशलता, प्रबंधन, रणनीति, आपत्तिकाल में सूझबूझ से काम लेना, सामाजिक आचरण, धन प्रबंधन आदि बहुत कुछ सीखा जा सकता है। रही बात इन पवित्र ग्रंथों को लेकर मुख से मल विसर्जन करने वालों की तो उन्हें बिल्कुल महत्व मत दीजिए। ये अपने माता पिता की पूजनीयता पर भी प्रश्न उठा सकते हैं।ऐसे लोग कुतर्क कर सकते हैं कि माता पिता ने तो अपने वैवाहिक संबंध का निर्वाह किया,उन्हें पूजना क्यों और चरण स्पर्श क्यों? जिस कालखंड में ग्रंथ रचे गए तब कैसे शब्द, भाषा शैली, जाति व्यवस्था प्रचलित थी इसका ज्ञान है क्या किसी को? हम तो वो लोग हैं जो रावण से भी ज्ञान ग्रहण करने में हिचकते नहीं। रामचरितमानस भारत की परंपराओं का निचोड़ है। मानस स्वयं मे भारत है। और केवल मानस ही भारत है। केवल मानस ही सनातन है। भारत में जो कुछ भी वंदनीय है, अनुकरणीय है। बचाने योग्य है। वह सब केवल मानस में है।
यह देश, आज मानस को नहीं समझ पा रहा है। शबरी, भील, केवट, अहिल्या, को नहीं समझ पा रहा है। नहीं समझ पा रहा है,कि जिन्हें हम वानरों और रीछों की सेना कहते हैं, वो इस देश की आदिवासी परंपरा रही है। जिन्हें हम वंचित मान बैठे हैं, वो ही तो राम जी की लड़ाई के असली योद्धा, असली नायक रहे हैं। मानस स्वयं में सार है। हर दोहा, और छंद, और चौपाई, इस राष्ट्र की अनुपम, अतुल्य, सर्व समाहित जीवंत परंपरा का द्योतक है। मानस का अपमान स्वयं मे भारत का अपमान है। इससे बड़ा राष्ट्रद्रोह हो ही नहीं सकता है। सकल हिन्दू समाज, सरकार, जन-जन को उठना होगा। अपनी कापुरुषा, अपनी नपुंसकता छोड़, छुद्र राजनीतिक स्वार्थ, नफा नुकसान त्याग, आग की तरह धधकना होगा। मानस की लाज न रख पाने वाला समाज, धर्म, सरकार और हम,कल अपनी मां, अपनी बहन, अपनी बेटी, अपनी आत्मा का भी सम्मान खो देंगे।
दरअसल आजकल लोग जातिवाद के चलते चौपाई और श्लोकों के गलत अर्थ निकालने लगे हैं। उसके संदर्भ को काटकर वे उसके भाव को नहीं पकड़ते हैं। प्राचीन काल के गुरुकुल में हर जाति और संप्रदाय का व्यक्ति पढ़कर उच्च बनता था। वेदों को लिखने वाले ब्राह्मण नहीं थे। वाल्मीकि रामायण किसी ब्राह्मण ने नहीं लिखी। महाभारत और पुराण लिखने वाले वेद व्यास जी निषाद कन्या सत्यवती के पुत्र थे। रामचरितमानस हिंदुओं के लिए सिर्फ धार्मिक ग्रंथ ही नहीं बल्कि जीवनदर्शन है और संस्कारों से जुड़ा हुआ है। मानस कोई पुस्तक नहीं बल्कि मनुष्य के चरित्र निर्माण का विश्वविद्यालय है और लोगों के कार्य, व्यवहार में इसे स्पष्ट से देखा जा सकता है।