राष्ट्र न तो कोई भूमि का बेजान टुकड़ा होता है कि जिस पर किसी वस्तु का निर्माण किया जा सके। राष्ट्र किसी भवन का नाम भी या नक्शा भी नहीं है कि जिसकी मरम्मत या फिर जिसके अनुसार किसी तरह का कोई निर्माण कार्य किया जा सके। राष्ट्र तो एक भावना हुआ करती है कि जो व्यक्ति या व्यक्तियों को किसी भू -भाग के कण-कण से, प्रत्येक जड़ – चेतन प्राणी और पदार्थ से जोड़े रहा करती है। यह भावना तभी सजीव – सप्राण रह पाती है कि जब उस भावना के अनुरूप एक विशिष्ट भू-भाग से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति में एकता का भाव और संगठन हो। उसके बाद जिसे राष्ट्र – निर्माण कहा जाता है, वह संभव हुआ करता है।
-सुमन सलूजा
राष्ट्र न तो कोई भूमि का बेजान टुकड़ा होता है कि जिस पर किसी वस्तु का निर्माण किया जा सके। राष्ट्र किसी भवन का नाम भी या नक्शा भी नहीं है कि जिसकी मरम्मत या फिर जिसके अनुसार किसी तरह का कोई निर्माण कार्य किया जा सके। राष्ट्र तो एक भावना हुआ करती है कि जो व्यक्ति या व्यक्तियों को किसी भू -भाग के कण-कण से, प्रत्येक जड़ – चेतन प्राणी और पदार्थ से जोड़े रहा करती है। यह भावना तभी सजीव – सप्राण रह पाती है कि जब उस भावना के अनुरूप एक विशिष्ट भू-भाग से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति में एकता का भाव और संगठन हो। उसके बाद जिसे राष्ट्र – निर्माण कहा जाता है, वह संभव हुआ करता है।
राष्ट्र – निर्माण का एक अर्थ होता है एकता और संगठन का अनवरत निर्माण एवं विकास, दूसरा अर्थ होता है वह एकताबद्ध एवं संगठित समाज जिस भू – भाग पर निवास कर रहा है, उस का समय एवं युग – परिस्थितियों के अनुरूप विकास – कार्य उन्नति एवं उत्कर्ष के उपाय करना आदि।
इस तरह जन – समुदाय या समुदायों की एकता वह मूल आधार है, जिस पर भावना के स्तर पर राष्ट्रीयता और व्यवहार के स्तर पर राष्ट्र के दृश्य स्वरूप भू – भाग अर्थात देश का नव निर्माण किया जा सकता या संभव हो पाया करता है। भारतीय राष्ट्रीयता के पर्याय भारत नामक देश में या भू – भाग पर अनेक धर्मों, जातियों, सभ्यता – संस्कृतियों, विश्वासों, रीती – नीतियों, रहन-सहन, खान-पान एवं भाषाओं को मानने और प्रयोग करने वाले अनेक जन समुदाय निवास कर रहे हैं। आरंभ से ही अनेक ऐसे दौर आते रहे, जब कई तरह के आक्रांताओं ने इस भूभाग पर आक्रमण कर इसे पद दलित, ध्वस्त या अधीन करना चाहा। कई बार ऐसा लगा भी कि जैसे सामने चट्टान आ जाने पर बहती धारा रूक जाया करती है। उसी तरह यह देश और इसकी राष्ट्रीयता की अनवरत प्रवहणशील धारा भी रुक गई है। लेकिन जैसे धारा अपने को संचित कर इधर-उधर से रास्ता ढूंढ और बना कर फिर आगे बह जाया करती है, वैसे ही भारतीयता की धारा भी आगे बढ़ती गई। आक्रमण करने वाले कुछ लौट गए, कुछ यहां की मूल धारा में समग्रतः घुल मिलकर एक हो गए और कुछ ने यहाँ का बनकर भी अपना अलग स्वरूप एवं व्यक्तित्व बनाए रखा। आज जो अनेकरूपता एवं उपरिकथित विविधता दीख पड़ती है, इसका कारण ये तीसरे प्रकार के बहिरागत लोग ही हैं। अपना अलग व्यक्तित्व और विश्वास रखते हुए भी राष्ट्रीय भावना के एकत्व के कारण ही वे सब एक हैं या इस देश के निवासी कहलाने के अधिकारी हैं।
राष्ट्र के निर्माण के लिए देश – जाति का माहौल अन्त – बाह्य स्तर पर शांत ऐसा ही चाहिए। शांति तभी बनी रह सकती है कि जब अपने – अपने सामुदायिक विश्वास स्वतंत्रतापूर्वक बनाए रखते हुए भी सभी भीतर – बाहर से एक बने रहें। एकता और संगठन में कहीं रत्ती भर भी, दशा नज़र न आए। यों सामान्य मतभेद बने रहना सहज स्वाभाविक है। कहावत है न, जहां पर अनेक बर्तन रखे होंगे, उठाते – रखते समय वे थोड़े – बहुत टकराएंगे ही। टकराने पर उनकी खनक भी अवश्य सुनाई देगी, पर इसी कारण कोई उन्हें उठाकर रसोई घर से बाहर नहीं फेंक दिया करता। उसी तरह बहुत सारे लोगों में वैचारिक – सामुदायिक जैसे भेदभाव बने रहने पर भी शांति बनी रह सकती है कि जो राष्ट्र – हित और निर्माण की पहली शर्त है। शांति बनी रहने पर वह सारा धन, शक्ति और समय निर्माण – कार्यों पर लगाया जा सकता है कि जो अराजकता और अशांति की स्थिति में उसे मिटाने या संभालने में खर्च किया जाता है।
राष्ट्रीय स्तर पर एक और संगठित राष्ट्र एक बड़ी शक्ति के रूप में उभर कर सामने आया करते हैं। उस शक्ति में अपनी – अपनी स्थिति एवं सामर्थ्य के अनुसार सभी का स्वभाविक योगदान रहा और मान लिया जाता है। उस सामूहिक शक्ति का उपयोग करके कोई देश जैसा भी निर्माण – कार्य कर सकता है। स्वतंत्रता – प्राप्ति के बाद अभी तक हमारा देश क्योंकि राष्ट्र – निर्माण के तरह – तरह के कार्यों में लगा हुआ है, अतः उसे सभी के सहयोग की पूर्ण आवश्यकता है। जैसे बूंद – बूंद से घड़ा भरा करता है, वैसे ही व्यक्ति – व्यक्ति के पारस्परिक मेल से एकता का उदय हुआ करता है। वह एकता ही उस शक्ति का प्रतीक हुआ करती है, जिसे निर्मायक या निर्मातृ शक्ति कहा जाता है। आज भारत को इसी शक्ति की आवश्यकता है। इसके यानि एकता के अभाव में कोई भी देश न तो अपना निर्माण ही कर सकता है और न एक कदम भी आगे बढ़ सकता है।
जो राष्ट्र एक एवं संगठित हुआ करता है, उसे कोई तोड़ नहीं सकता। कोई भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता। उसे प्रगति और विकास की राह पर निरंतर आगे बढ़ते रहने से कोई रोक भी नहीं सकता। जैसे मोटे रस्से को रेशे – रेशे अलग करके तो तोड़ा जा सकता है; पर अपने बटे हुए मूल रूप में नहीं, उसी प्रकार देशों – राष्ट्रों की भी स्थिति हुआ करती है। आज कई बार जब भाड़े के टट्टू, विदेशी एजेंट या फिर पैसे के लिए अपनी अस्मिता को बेच देने वाले स्वार्थी लोग अपनी हथकण्डों से अराजकता फैला कर राष्ट्र को तोड़ने का प्रयास करने लगते हैं, तब चिंता होना स्वाभाविक हुआ करता है। प्रत्येक सच्चे मानव और राष्ट्रजन का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने आस – पास चौकन्नी दृष्टि रख इस तरह के तत्वों को पनपने या सिर उठाने का क्षीण सा भी अवसर अवसर प्रदान न करे ताकि वह शांति स्थाई रूप से बनी रहे कि राष्ट्र – निर्माण और विकास – कार्यों के लिए जो परम आवश्यक हुआ करती है। उसके बिना गुजारा हो पाना संभव नहीं। यदि राष्ट्रीय एकता बनाए रखकर हम निर्माण और विकास – कार्य न कर सके तो भविष्य का इतिहास में कभी क्षमा न कर सकेगा, यह निश्चित है।