पंजाब और हरियाणा में गहराता गंभीर जल संकट

हरित क्रांति के बाद, पंजाब और हरियाणा मुख्य खरीफ फसल के रूप में धान की खेती, फसल की सघनता में भारी वृद्धि और तेजी से शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण जल-संकटग्रस्त राज्य बन गए हैं। हालांकि, वास्तविक मुद्दा – टिकाऊ फसल पैटर्न पर वापस लौटना और जल-उपयोग दक्षता में सुधार करना – अभी भी अनसुलझा है।

-डॉ सत्यवान सौरभ

पंजाब और हरियाणा में धान की कृषि भारत की खाद्य सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, परंतु जल पर अत्यधिक निर्भरता के कारण यह असंधारणीय होती जा रही है। धान की कृषि के कारण भूजल का अत्यधिक दोहन होने से इस क्षेत्र में गंभीर जल संकट उत्पन्न हो गया है। हरियाणा में 88 जल इकाइयों को अत्यधिक दोहन वाली श्रेणी में रखा गया है। इस समस्या से निपटने के लिए कृषि और जल संसाधनों दोनों की सुरक्षा हेतु तत्काल सुधार की आवश्यकता है।

भूजल का अत्यधिक दोहन: पंजाब और हरियाणा में धान की खेती के लिए अत्यधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है, जिससे भूजल स्तर में भारी कमी हुई है। केंद्रीय भूजल बोर्ड द्वारा 2023 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि धान की खेती के लिए अत्यधिक जल दोहन के कारण पंजाब के 87% ब्लॉकों का अति दोहन किया गया। धान की खेती में प्रति किलो चावल के लिए लगभग 4,000-5,000 लीटर जल की खपत होती है , जिससे क्षेत्र के जल संसाधनों पर बहुत ज़्यादा दबाव पड़ता है। इसकी तुलना में, बाजरे को प्रति किलो केवल 500 लीटर जल की आवश्यकता होती है , जो जल की आवश्यकताओं में भारी अंतर और धान की खेती की असंधारणीय प्रकृति को दर्शाता है। ट्यूबवेल के लिए दी जाने वाली मुफ़्त बिजली ने भूजल के अनियंत्रित दोहन को बढ़ावा दिया है, जिससे यह संकट और भी बढ़ गया है।

 पंजाब के किसानों को वर्ष 2023-24 में बिजली, नहर के पानी और उर्वरक के लिए 38,973 रुपये प्रति हेक्टेयर की सब्सिडी मिली , जिससे भूजल का निरंतर रूप से अतिदोहन हो रहा है। धान की खेती के कारण बढ़ता जल तनाव ,जलवायु परिवर्तन के कारण और भी अधिक हो गया है, अनियमित वर्षा के कारण जलभृतों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। पंजाब और हरियाणा के जल स्तर में तेजी से हो रही गिरावट से कृषि की दीर्घकालिक व्यवहार्यता को खतरा है।

 धान की खेती एकल फसल प्रणाली को बढ़ावा देती है, जिससे जैव विविधता कम होती है और मृदा के पोषक तत्व कम होते हैं, जिससे कृषि संधारणीयता में कमी आती है।  अध्ययनों के अनुसार फसल चक्रण से मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार होता है परंतु धान की खेती ऐसी विविधता को हतोत्साहित करती है। जल की अधिक माँग के कारण रासायनिक उर्वरकों का उपयोग भी बढ़ जाता है, जिससे मृदा की गुणवत्ता और भी खराब हो जाती है तथा जल स्रोत प्रदूषित हो जाते हैं। बाढ़ सिंचाई, धान की खेती में प्रयुक्त होने वाली एक प्रमुख विधि है, जिससे वाष्पीकरण और अपवाह के माध्यम से  जल की बहुत बर्बादी होती है। निरंतर धान की खेती से मृदा लवणता बढ़ जाती है, जिससे कृषि भूमि की उत्पादकता कम हो जाती है और यह अन्य फसलों के लिए कम उपयुक्त हो जाती है। धान के खेत, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं, विशेष रूप से मीथेन के उत्सर्जन में जो जलवायु परिवर्तन को बढ़ाता है और दीर्घकालिक कृषि व्यवहार्यता को प्रभावित करता है। धान की खेती प्रति हेक्टेयर 5 टन कार्बोडीऑक्सीडे समतुल्य हानिकारक गैस  उत्पन्न करती है , जो इसे कृषि उत्सर्जन में एक प्रमुख योगदानकर्ता बनाती है।

 दालों, तिलहनों और बाजरा जैसी कम जल की खपत वाली फसलों की खेती को प्रोत्साहित करने से जल का उपयोग काफी कम हो सकता है और संधारणीयता में सुधार हो सकता है।  पंजाब की 2024 की योजना, धान को छोड़कर वैकल्पिक फसलों को उगाने के लिए 17,500 रुपये प्रति हेक्टेयर प्रोत्साहन की पेशकश करती है , जिसका उद्देश्य विविधीकरण को प्रोत्साहित करना है। किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए धान से अन्य संधारणीय फसलों पर सब्सिडी को पुनर्निर्देशित करना आवश्यक है। डायरेक्ट सीडिंग ऑफ राइस और सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों जैसी प्रथाओं को बढ़ावा देने से पैदावार को बनाए रखते हुए जल संरक्षण में मदद मिल सकती है। एमएसपी और खरीद कार्यक्रमों के माध्यम से दालों और तिलहन जैसी फसलों के लिए बाजार आश्वासन सुनिश्चित करने से किसानों के धान के अलावा अन्य फसलों को उगाने का डर , कम हो सकता है। भारतीय खाद्य निगम ने वर्ष 2023 में पंजाब का 92.5% चावल खरीदा, इसी तरह के तंत्र वैकल्पिक फसलों को उगाने की प्रथा को बढ़ावा दे सकते हैं।

फसल विविधीकरण और जल-बचत प्रथाओं के लाभों के संबंध में किसानों को शिक्षित करने से दीर्घकालिक परिवर्तन को बढ़ावा मिल सकता है। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच समन्वित प्रयास , पुनर्गठित सब्सिडी , जल-कुशल प्रथाओं और बाजार आश्वासन पर ध्यान केंद्रित करके , पंजाब और हरियाणा को सतत कृषि की ओर उन्मुख किया जा सकता है। इस तरह के सुधार कृषि उत्पादकता को पर्यावरण संरक्षण के साथ संतुलित करेंगे, क्षेत्र के जल संसाधनों को सुरक्षित करेंगे और इसके कृषक समुदायों के भविष्य को सुनिश्चित करेंगे।

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