मायावती के सक्रिय न होने से समर्थक निराश

प्रत्याशी चयन की दलित मतदाताओं को लुभाने में होगी निर्णायक भूमिका

बृजेश चतुर्वेदी
दलित मतदाताओं में सबसे अधिक निराशा का भाव है। उन्हें इस बात का कष्ट है उनकी नेता मायावती विधानसभा चुनाव 2022 को लेकर अन्य दलों के नेताओं की  तरह प्रदेश में रैलियाँ क्यों नहीं करती। सतीश चन्द्र मिश्रा लगातार रैलियाँ करते रहे है लेकिन इसका प्रभाव दलित मतदाताओं पर ज्यादा नहीं पड़ रहा है। मायावती के सक्रिय न होने के बाद भी उनका 12% से 14% ऐसा वोट बैंक है जो प्रत्याशी नहीं हाथी चुनाव चिन्ह देखता है। इसलिए किसी भी जाति का अगर मजबूत प्रत्याशी जिसे अपनी जाति का समर्थन मिलता है तो उनका वोट बैंक बसपा के प्रत्याशी के रूप में 14 से शुरू होगा जबकि किसी भी पार्टी या दल चाहे वह भाजपा, सपा, कांग्रेस कोई भी हो ऐसा नहीं कि 14% मतदाता जातीय आधार पर प्रत्याशी के चेहरे पर नहीं पार्टी के सिंबल पर वोट करता है लेकिन बसपा में ऐसा है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण 84 अनुसूचित जातियाँ और 2 अनुसूचित जन जाति की सीटें हैं। इन सीटों पर जो दल सर्वाधिक सीटें जीतता है उसी की सरकार बनती है। 2014 एवं 2017 और 2019 में पिछड़ों की तरह दलित मतदाताओं ने भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जबरदस्त समर्थन दिया। जिससे लोकसभा और विधानसभा दोनों में अप्रत्याशित परिणाम मिले। 2017 विधानसभा चुनाव में एक ऐसा राजनीतिक समीकरण बन गया था। जिसमे सपा और काँग्रेस का गठबंधन था इसके बाद भी मायावती की सीटें 19 जरूर मिली लेकिन मत 22% से अधिक रहा। इस चुनाव में 40% से अधिक दलित मतदाताओं ने भाजपा का समर्थन किया था। योगी सरकार के 5 वर्ष के कार्यकाल में दलित मतदाता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की  कल्याणकारी योजनाओं से सबसे अधिक लाभान्वित हुये हैं और योगी आदित्यनाथ की कानून व्यवस्था में पिछली सरकारों की तुलना में काफी सुरक्षित भी रहे हैं। ऐसी स्थिति में जब मायावती आक्रामक सियासत नहीं कर रही हैं। दलित मतदाता प्रधानमंत्री की कल्याणकारी योजनाओं से प्रभावित होकर भाजपा से जुड़ रहा है लेकिन इन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बाद भी दलितों का ऐसा वर्ग है जो भाजपा सरकार में सम्मानित और लाभान्वित होता रहा है। वह अभी असमंजस में फंसा है और मायावती की तरफ देख रहा है। दलित मतदाताओं के रूख से स्पष्ट है कि बसपा के बाद दूसरा विकल्प भाजपा ही है। बसपा की कमजोरी से भाजपा को लाभ मिल सकता है। समाजवादी पार्टी सुरक्षित सीटों पर ही अधिक प्रभावी ढंग से लड़ेगी क्योंकि इस सुरक्षित विधानसभा में सभी प्रत्याशी सुरक्षित वर्ग से आते है और गैर अनुसूचित जाति के मतदाता ही निर्णायक होते हैं। 86 सीटों में 23 सीटों पर मुस्लिम और 21 सीटों पर सवर्ण तथा 32 सीटों पर पिछड़ों की संख्या अधिक है। प्रत्याशी चयन महत्वपूर्ण होगा। क्योंकि बेहतर प्रत्याशी जिसका दलितों में भी प्रभाव हो और अन्य जातियों में भी विरोध न हो। महत्वपूर्ण यह है कि सुरक्षित सीटों पर सर्वाधिक कब्जा करने वाली पार्टी ही बहुमत की सरकार बनाती है। 2017 में भाजपा को 86 में से 70 सीटें मिली है और गठबंधन की सीटों को जोड़ ले तो यह संख्या 76 हो जाती है। इस बार मायावती और सतीश चंद्र मिश्रा द्वारा चुनाव न लड़ने की घोषणा ने सारे समीकरण उलट पुलट कर दिए है और मतदाता अब सिर्फ जिताऊ प्रत्याशी, बिरादरी के प्रत्याशी और हाथी निशान की ओर देखेगा। इस मामले में भाजपा बेहद सतर्क होकर दलित मतदाताओं को निशाना बनाकर ही प्रत्याशी तय करेगी। दूसरे दल भी इसी समीकरण का ध्यान रखेंगे तो यह लड़ाई बेहद दिलचस्प हो जाएगी।

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