अतिपिछड़ों की उपेक्षा भाजपा पर पड़ेगी भारी

बृजेश चतुर्वेदी
2017 के विधान सभा चुनाव में एकतरफ़ा जुटकर पिछड़ें मतदाताओं ने भाजपा का समर्थन किया था। इस एकतरफा समर्थन के पीछे उन्हें भरोसा था कि अति पिछड़ें समाज के केशव प्रसाद मौर्य को मुख्यमंत्री बनाया जायेगा। यह सत्य है कि भाजपा के 40% मत और 312 अप्रत्याशित सीटों की जीत में सर्वाधिक योगदान पिछड़ें वर्ग का था लेकिन एक तरफा समर्थन के बाद भी केशव प्रसाद मौर्या को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया। सवर्ण राजपूत योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बना दिया गया। प्रधानमंत्री के इस निर्णय से पिछड़ा वर्ग विशेषकर अति पिछड़ा वर्ग ठगा सा महसूस कर रहा है हालांकि सांत्वना देने के लिए केशव प्रसाद मौर्य को उप मुख्यमंत्री जरूर बनाया गया और यह आश्वासन दिया गया कि अति पिछड़ो को सामाजिक न्याय की संस्तुतियों के अनुसार 27% में अलग से आरक्षण दिया जायेगा। इसके लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कमेटी भी बनाई। कमेटी ने रिपोर्ट भी दे दी लेकिन उसे ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया। यही नहीं उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की एनएक्सी (पुराना मुख्यमंत्री सचिवालय) में लगाई गई नेम प्लेट को भी उखाड़ कर फेंक दिया गया था जबकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने पूरे कार्यकाल में लोकभवन में बैठते रहे हैं। इसके साथ ही हमेशा इस बात की चर्चा होती रही कि केशव मौर्य के विभाग को स्वतन्त्र रूप से कार्य करने की छूट नहीं है। मुख्यमंत्री सचिवालय काफी दखल देता है। इन्हीं चर्चाओं के बीच केशव मौर्य ने भी मुख्यमंत्री से दूरी बना ली थी। जिसे बाद में केंद्रीय नेतृत्व ने हस्तक्षेप करके दूर करने का प्रयास किया है लेकिन अभी दूरी समाप्त नहीं हुई है। 2017 में अपना दल और ओम प्रकाश राजभर की पार्टी से समझौता भी हुआ था जिसमें 11 सीटें अपना दल को और 8 सीटें राजभर को दी गयी थी। अपना दल 9 और राजभर ने 4 सीटें जीती। राजभर को मंत्री भी बनाया गया लेकिन अतिपिछड़ों को हिस्सेदारी न मिलने से नाराज होकर राजभर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया और भाजपा का विरोध करते हुए 2022 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया है। राजभर के आलावा दूसरे निषाद पार्टी के बड़े नेता डॉक्टर संजय है जो 2017 में 72 सीटों पर लड़े थे और मात्र एक सीट जीती थी। पिछड़ों की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर के सांसद पद से इस्तीफ़ा दिया। उपचुनाव हुए और भाजपा हार गयी। गोरखपुर सबसे अधिक प्रतिष्ठा की सीट थी जो गोरखमठ की परम्परागत सीट थी जहाँ से 1967 में दिग्विजय नाथ और 1970 उपचुनाव मे अवैद्यनाथ सांसद चुने गये थे। 1971 एवं 1977 तथा 1980 चुनावों को छोड़ दे तो 1989 से लगातार गोरखपुर संसदीय सीट पर मठ का कब्जा था। 1988 से योगी आदित्यनाथ सांसद थे। मुख्यमंत्री बनने के बाद रिक्त हुई गोरखपुर सीट के उपचुनाव में समाजवादी पार्टी के प्रवीण कुमार निषाद जीत गये। इस जीत से यह स्पष्ट है कि पिछड़ों का पूर्वांचल की गोरखपुर सीट में जातीय समीकरण के हिसाब से बहुत दबदबा है। गोरखपुर से चुनाव हारने के बाद योगी आदित्यनाथ ने प्रवीण निषाद को भाजपा में शामिल किया और संत कबीर नगर से टिकट दिया जो अब सांसद हैं। 
संजय निषाद को विधान परिषद का सदस्य बनाया गया। संजय निषाद ने लखनऊ में निषादों की एक बड़ी रैली की जिसमें गृह मंत्री अमित शाह शामिल हुए। निषाद को उम्मीद थी उन्हें आरक्षण का अधिकार दिए जाने की घोषणा होगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जिससे संजय निषाद और भाजपा दोनों के खिलाफ नाराजगी है। पूर्वांचल में निषाद, राजभर, कुर्मी, यादव, मौर्य पाल आदि प्रभावशाली जातियाँ हैं। पिछड़ों ने 2014, 2017 और 2019 तीनों चुनाव में मोदी के चेहरे पर समर्थन किया था और उम्मीद थी कि उत्तर प्रदेश में गैर यादव अति पिछड़ों को 27 प्रतिशत में अलग से आरक्षण देंगे। अति पिछड़ें जिनकी आबादी कुल 52% पिछड़ों में 40% है। मोदी भी अति पिछड़ी जातियों से आते हैं। इन तीनों चुनाव में अति पिछड़ों में मोदी से सीधी कनेक्टिविटी के चलते भावनात्मक जुड़ाव  भी हो गया था जो तमाम उपेक्षा के बाद भी अभी भी मोदी से बना हुआ है। ब्राह्मणों की तरह अति पिछड़ों में भी केशव मौर्य की उपेक्षा और योगी की कार्यशैली से जबरदस्त नाराजगी है। जिसका फायदा समाजवादी पार्टी को मिल रहा है। पिछड़ों में यह संदेश चला गया है कि तीन चुनाव में एकतरफा भाजपा का साथ देने के बाद भी उन्हें अधिकार नहीं मिला। उनके नेता को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया। 
योगी आदित्यनाथ के चेहरे पर 2017 चुनाव नहीं लड़ा गया था। चुनाव मोदी और प्रदेश में अति पिछड़ें नेता केशव प्रसाद मौर्य के नेतृत्व में लड़ा गया था। इसलिए अति पिछड़ों में इस बात का डर समा गया है कि इस बार योगी आदित्यनाथ के चेहरे पर चुनाव लड़ा जा रहा है और अति पिछड़ों की नाराजगी के बाद भी 2017 जैसी सफलता मिली तो योगी का कद बढ़ेगा और अति पिछड़ों के राजनीतिक भविष्य का खतरा पैदा हो जाएगा। भाजपा ने यादवों के खिलाफ लामबंद करके ही अति पिछड़ों को साथ में जोड़ा था और यह वादा किया था कि यादवों की सरकार में यादव ही सबसे अधिक लाभान्वित हुये है। अति पिछड़ों को हिस्सेदारी नहीं मिली। इन वादों पर ही अति पिछड़ों ने भरोसा किया था और भाजपा के साथ जुड़े थे। 2022 में राजनीतिक स्थितियाँ बदली हुई हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पिछड़ों के कद्दावर नेता के रूप में सामने खड़े है। अति पिछड़े योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली से आहत होकर भारी संख्या में अखिलेश से जुड़ रहे हैं। बसपा को भी अति पिछड़ों में समर्थन था लेकिन मायावती की निष्क्रियता से बसपा के कई कद्दावर नेता सपा में शामिल हो गये है और एक परसेप्शन बन गया है कि कांग्रेस कमजोर है बसपा सक्रिय नहीं है इसलिए सीधी लड़ाई सपा से है। यह माना जा रहा है कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नेतृत्व, संरक्षण और चेहरा नहीं होता और चुनाव योगी बनाम अखिलेश होता तो जातीय समीकरण के अनुसार अखिलेश यादव योगी पर बहुत भारी है। योगी से नाराजगी के बाद भी प्रधानमंत्री द्वारा केशव मौर्य को लगातार महत्व देने से अखिलेश की तरफ बढ़ रहे अति पिछड़े को थोड़ा भरोसा हुआ है कि उन्हें महत्व मिलेगा। हालांकि स्वामी प्रसाद मौर्या के पाला बदल कर सपा में चले जाने से समीकरण फिर गड़बड़ा गए हैं। माना जा रहा है कि स्वामी के साथ और भी कई नेता और विधायक पाला बदल करेंगे।इस सबके बावजूद सबसे अधिक और अहम प्रत्याशियों का चयन होगा। अति पिछड़ो को प्रत्याशी चयन में कितना महत्व दिया जाता है इससे भी काफी स्थिति स्पष्ट होगी। टिकट बँटवारे में अगर पिछड़ों को अधिक महत्व नहीं दिया गया तो निश्चित रूप से इसका लाभ सपा को मिलेगा। जो जातीय सियासत हो रही है जिस तरह से अखिलेश अति पिछड़ों की छोटी छोटी जातियों को मिला रहे है उससे यह स्पष्ट है अति पिछड़ों में भी जातीय समीकरण के अनुसार जिस पिछड़ी जाति का जीतने वाला प्रत्याशी होगा, उसे उस पिछड़ी जाति का समर्थन मिलेगा।

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