वन्य जीवों और पेड़ों के लिए अपनी जान पर खेलता बिश्नोई समाज

बिश्नोई समाज राजस्थान का एक अनूठा समुदाय है जो सदियों से पेड़-पौधों और वन्य जीवों की रक्षा में अपना जीवन समर्पित करता आया है। यहां की महिलाएं घायल हिरणों को अपने बच्चों की तरह पालती हैं। 1730 में खेजड़ली गांव में अमृता देवी और 363 बिश्नोईयों ने पेड़ों की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। बिश्नोई जीवनशैली 29 नियमों पर आधारित है, जिसमें प्रकृति से गहरा प्रेम निहित है। ‘बिश्नोई टाइगर फोर्स’ जैसे संगठनों के माध्यम से आज भी यह समाज जीव रक्षा का कार्य करता है। बिश्नोई समाज सच्चे अर्थों में प्रकृति का संरक्षक है।

-डॉ. सत्यवान ‘सौरभ’

नई दिल्ली।(आवाज न्यूज ब्यूरो)। भारत में जब पर्यावरण संरक्षण की बात होती है, तो राजस्थान के बिश्नोई समाज का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। सदियों से यह समाज पेड़-पौधों और वन्य जीवों के संरक्षण में अपनी जान तक न्यौछावर करता आया है। बिश्नोई समाज न केवल प्रकृति का रक्षक है, बल्कि वह उसे ईश्वर के रूप में पूजता भी है। राजस्थान के रेतीले धोरों में फैले इस समाज की जीवटता और प्रकृति प्रेम की मिसालें आज भी दिल को छू जाती हैं।

हिरण के बच्चों की ममता भरी देखभाल

बिश्नोई समाज की महिलाओं का हिरणों के प्रति प्रेम किसी भी मानवीय रिश्ते से कम नहीं है। यहां की महिलाएं अनाथ या घायल हिरण के बच्चों को अपने शिशु की तरह पालती हैं — उन्हें न सिर्फ अपने घर लाती हैं, बल्कि अपना दूध पिलाकर उनका पालन-पोषण करती हैं। यह दृश्य जितना अद्भुत लगता है, उतना ही हृदयस्पर्शी भी है। पांच सौ वर्षों से चली आ रही इस परंपरा में, ममता और प्रकृति के बीच का अदृश्य रिश्ता हर दिन जीवित रहता है।

यहां के बच्चे जानवरों के साथ बड़े होते हैं, खेलते हैं, सीखते हैं कि पेड़ और पशु उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। बिश्नोई समाज में हिरण को भगवान श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है। इसीलिए, यहां के लोग हिरणों को पूजते हैं और उनकी रक्षा को अपना धर्म समझते हैं।

बिश्नोई आंदोलन: पर्यावरण संरक्षण की पहली चिंगारी

पर्यावरण आंदोलन के इतिहास में बिश्नोई समाज का योगदान अतुलनीय है। 1730 के दशक में, जोधपुर के राजा अभय सिंह ने अपने नए महल के निर्माण के लिए खेजड़ी के वृक्षों को काटने का आदेश दिया। जब सैनिक पेड़ों को काटने आए, तो खेजड़ली गांव की अमृता देवी बिश्नोई ने अपनी तीन बेटियों के साथ मिलकर पेड़ों से लिपटकर उनका बचाव किया। सैनिकों ने उनके प्राणों की भी परवाह नहीं की। देखते ही देखते, 363 बिश्नोई पुरुषों, महिलाओं और बच्चों ने वृक्षों की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दिए।

इस बलिदान ने भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी। अमृता देवी के नेतृत्व में हुआ यह बलिदान बाद के चिपको आंदोलन का भी प्रेरणास्रोत बना। आज भी भारत सरकार “अमृता देवी बिश्नोई वन्यजीव संरक्षण पुरस्कार” के माध्यम से इस महान विरासत को याद करती है।

29 नियमों पर आधारित जीवनशैली

बिश्नोई समाज की जीवनशैली ‘जाम्भोजी महाराज’ द्वारा प्रतिपादित 29 नियमों पर आधारित है। ‘बीस’ और ‘नौ’ से मिलकर बना ‘बिश्नोई’ शब्द, इन नियमों के प्रति समाज की अटूट निष्ठा का परिचायक है। इन नियमों में शाकाहार, जीवों की रक्षा, पेड़ों की पूजा, पानी का संरक्षण और सरल जीवनशैली पर विशेष बल दिया गया है। बिश्नोई समाज का प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह पुरुष हो या महिला, इन आदर्शों को अपने जीवन का आधार बनाता है।

संगठित प्रयास: जीव रक्षा से टाइगर फोर्स तक

समाज के भीतर ही नहीं, बिश्नोईयों ने अपने संगठनों के जरिये भी बड़े पैमाने पर संरक्षण का कार्य किया है। ‘अखिल भारतीय जीव रक्षा बिश्नोई महासभा’ और ‘बिश्नोई टाइगर फोर्स’ जैसी संस्थाएं चौबीसों घंटे वन्यजीवों की रक्षा में लगी रहती हैं। शिकारियों को पकड़ना, कानूनी कार्यवाही कराना और आम लोगों में जागरूकता फैलाना — ये इनके नियमित कार्य हैं।

आज जब दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण की बातें हो रही हैं, तब भी बिश्नोई समाज नारे नहीं, अपने कर्मों से उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है। इनके लिए संरक्षण कोई अलग अभियान नहीं, बल्कि सांस लेने जैसा स्वाभाविक कार्य है।

बिश्नोई समाज से मिलने वाली प्रेरणा

जहां आधुनिक सभ्यता के दबाव में मनुष्य और प्रकृति के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है, वहीं बिश्नोई समाज यह सिखाता है कि इंसान प्रकृति का अभिन्न अंग है। उनके लिए पेड़ और पशु महज संसाधन नहीं हैं, बल्कि जीवन के साथी हैं।

बिश्नोई समाज की माताएं जब हिरणों को अपने स्तनों से दूध पिलाती हैं, तब वह यह संदेश देती हैं कि ममता की कोई सीमा नहीं होती। पेड़ों से लिपटकर अपने प्राण देने वाले लोग यह सिखाते हैं कि जीवन केवल स्वयं के लिए नहीं, दूसरों के लिए भी जिया जा सकता है।

आज जब वैश्विक तापमान बढ़ रहा है, जैव विविधता खतरे में है और जलवायु परिवर्तन मानवता को चुनौती दे रहा है, तो हमें बिश्नोई समाज से सीख लेनी चाहिए। उनके जीवन में पेड़, पशु और प्रकृति केवल आदर के पात्र नहीं हैं, बल्कि पूज्य और परिवार का हिस्सा हैं। बिश्नोई समाज हमें बताता है कि यदि हम प्रकृति से प्रेम करेंगे, तो प्रकृति भी हमारी रक्षा करेगी।

भारत के इस महान समाज को नमन, जो सच्चे अर्थों में धरती के संरक्षक हैं!

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