‘‘मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति के लिए परामर्श प्रक्रिया में देश के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) को शामिल करने से निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता सुनिश्चित होगी’’
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति के लिए परामर्श प्रक्रिया में देश के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) को शामिल करने से निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता सुनिश्चित होगी। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि केंद्र में कोई भी सत्तारूढ़ दल ‘‘सत्ता में बने रहना पसंद करता है’’ और मौजूदा व्यवस्था के तहत पद पर एक ‘‘यस मैन’’ (हां में हां मिलाने वाला व्यक्ति) की नियुक्त कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट कुछ याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है जिसमें निर्वाचन आयुक्तों (ईसी) और मुख्य निर्वाचन आयुक्त (सीईसी) की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम जैसी प्रणाली का अनुरोध किया गया है। केंद्र ने दलील दी कि 1991 के अधिनियम ने सुनिश्चित किया है कि निर्वाचन आयोग अपने सदस्यों के वेतन और कार्यकाल के मामले में स्वतंत्र रहता है और ऐसा कोई बिंदु नहीं है जो अदालत के हस्तक्षेप को वांछित करता हो। उसने कहा कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति के लिए अपनाई गई व्यवस्था निर्वाचन आयुक्तों के बीच वरिष्ठता है। सुनवाई के दौरान जस्टिस केएम जोसेफ ने कहा कि चुनाव आयुक्त को प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई कदम उठाना हो लेकिन आयुक्त कमजोर होगा तो वो कोई कदम नहीं उठा पाएगा।
जस्टिस जोसेफ ने सुनवाई के दौरान कहा कि मैं यहां काल्पनिक तौर पर सिर्फ उदाहरण के लिए पीएम की बात कर रहा हूं। आयुक्त को स्वतंत्र, निष्पक्ष होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि उनका चयन सिर्फ कैबिनेट की बजाए उससे कहीं ज्यादा बड़ी बॉडी की ओर से हो। राजनीतिक लोग बातें करते रहे हैं, पर जमीनी स्तर पर कुछ नहीं हुआ। जस्टिस जोसेफ ने आगे कहा कि अगर कोई कदम नहीं उठाया जाता है तो क्या यह सिस्टम के पूरी तरह से बिखरने का मामला नहीं होगा? जस्टिस जोसेफ ने कहा कि सीजेआई सीबीआई निदेशक की नियुक्ति में शामिल हैं। वहां लोकतंत्र को कहां से खतरा है। हमारी अदालतों ने फैसले दिए हैं और उन्हें कार्यपालिका ने स्वीकार किया है।
जस्टिस के. एम. जोसेफ की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा कि संस्थान की स्वतंत्रता उस सीमा पर सुनिश्चित की जानी चाहिए जिसके लिए प्रवेश स्तर पर नियुक्ति की जांच पड़ताल की जानी है। पीठ में जस्टिस अजय रस्तोगी, जस्टिस अनिरुद्ध बोस, जस्टिस ऋषिकेश रॉय और जस्टिस सी. टी. रविकुमार शामिल हैं।
पीठ ने कहा, ‘‘केंद्र में प्रत्येक सत्तारूढ़ राजनीतिक दल खुद को सत्ता में बनाए रखना पसंद करता है। अब, हम सीईसी की नियुक्ति के लिए परामर्श प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं और इस प्रक्रिया में भारत के प्रधान न्यायाधीश को शामिल करने से आयोग की स्वतंत्रता सुनिश्चित होगी।’’
केंद्र की ओर से पेश अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि ने कहा कि निर्वाचन आयोग अधिनियम, 1991 एक महत्वपूर्ण क्षण था जिसके तहत निर्वाचन आयुक्तों को वेतन और कार्यकाल में स्वतंत्रता सुनिश्चित की गई। उन्होंने कहा, ‘‘दिनेश गोस्वामी समिति की रिपोर्ट के बाद संसद द्वारा कानून पारित किया गया था। कानून यह सुनिश्चित करता है कि आयोग अपने सदस्यों के वेतन और कार्यकाल के मामले में स्वतंत्र रहता है जो किसी संस्थान की स्वतंत्रता के लिए आंतरिक विशेषताएं हैं।’’
पीठ ने वेंकटरमणि से कहा कि 1991 के जिस कानून का वह जिक्र कर रहे हैं, वह केवल सेवा शर्त की शर्तों से संबंधित है, जो इसके नाम से ही स्पष्ट है। पीठ ने कहा, ‘‘मान लीजिए सरकार हां में हां मिलाने वाले एक ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति करती है जो उसकी विचारधारा का है। कानून उसे कार्यकाल और वेतन में सभी छूट प्रदान करता है, लेकिन संस्था में कोई तथाकथित स्वतंत्रता नहीं है। यह एक निर्वाचन आयोग है, जहां शुरुआती बिंदु पर स्वतंत्रता सुनिश्चित की जानी चाहिए।’’
वेंकटरमणि ने कहा कि स्वतंत्रता और वेतन के विभिन्न पहलू हैं और निश्चित कार्यकाल उनमें से एक है। उन्होंने कहा, ‘‘निर्वाचन आयोग अपने सदस्यों के वेतन और कार्यकाल के मामले में स्वतंत्र रहता है और ऐसा कोई बिंदु नहीं है जो अदालत के हस्तक्षेप को वांछित करता हो। वर्तमान में अपनाई गई व्यवस्था यह है कि सबसे वरिष्ठ निर्वाचन आयुक्त को मुख्य निर्वाचन आयुक्त (सीईसी) के रूप में नियुक्त किया जाता है।’’
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को निर्वाचन आयुक्तों और मुख्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कोई कानून नहीं होने का फायदा उठाये जाने की प्रवृत्ति को ‘‘तकलीफदेह’’ करार दिया था। अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 324 के विषय को उठाया था जिसमें निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के बारे में कहा गया है। अदालत ने कहा था कि इसमें इस तरह की नियुक्तियों के लिए प्रक्रिया नहीं दी गयी है।
अदालत ने कहा था कि इसके अलावा, उसने इस संबंध में संसद द्वारा एक कानून बनाने की परिकल्पना की थी, जो पिछले 72 वर्षों में नहीं किया गया है, जिसके कारण केंद्र द्वारा इसका फायदा उठाया जाता रहा है। अदालत ने कहा था कि 2004 से किसी मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने छह साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया है और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के 10 साल के शासन में छह मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे, वहीं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के आठ साल में आठ मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे हैं।