सरपंच पति प्रथा ने महिलाओ को पहले जहा थी वही लाकर खड़ा कर दी है। इसके लिये सरकार को सरपंच पति चलन को एक प्रभावी कानून के माध्यम से नियंत्रित करना चाहिये। शासन के मामले में क्षमता निर्माण पर आगे अतिरिक्त काम की आवश्यकता है। महिलाओ के अधिकार के बारे में समाज में जागरूकता बढाने और पंचायत स्तर पर महिलाओ की भागीदारी के महत्व के बारे में नौकर शाही को संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है। महिलाओं को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में पुरुषों के समान अधिकार होने चाहिए। भले ही संविधान महिलाओं को सभी क्षेत्रों में समान अधिकार की गारंटी देता है, सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों को समानता के आधुनिक लोकाचार के अनुकूल बनाने की आवश्यकता है। शासन के संस्थानों जैसे अदालतों, पुलिस, प्रशासनिक निकायों आदि को लैंगिक समानता पर ध्यान देना चाहिए।
-प्रियंका सौरभ
भारत में, लोकसभा में महिलाओं का अनुपात 2009 में 10.6% से बढ़कर 2014 में 11.4% और 2019 में 14.4% हो गया है। यह देश के इतिहास में संसद में महिलाओं की सबसे अधिक संख्या है। हालांकि, लगातार वृद्धि दिखाने के बावजूद, महिलाओं का अनुपात अभी भी प्रभावित नहीं कर रहा है और बहुत कम बना हुआ है। अंतर-संसदीय संघ की महिला संसदीय प्रतिनिधित्व की वैश्विक रैंकिंग के अनुसार, भारत 2020 में 143वें स्थान पर है, जो पाकिस्तान (106), बांग्लादेश (98), और नेपाल (43) जैसे एशियाई समकक्षों से पीछे है।
महिला सशक्तिकरण के लिये शासन द्वारा नौकरियो से लगातार जनता के मध्यम सेचुने जाने वाले जनप्रतिनिधियों केपदों में महिला आरक्षण की व्यवस्था की गई है। 73 वे संवैधानिक संशोधन के माध्यम से, पंचायतों में एक तिहाई सीटें महिलाओ के लिये आरक्षित की गई थी। कई राज्यों ने आरक्षित सीटों की मात्रा पचास प्रतिशत तक बढ़ा दी। इसका उद्देश्य महिलाओं को सशक्त बनाना और जमीनी स्तर पर राजनीतिक प्रक्रिया और निर्णय लेने में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना था। हालांकि महिलाओ की खराब सामाजिक-आर्थिक स्थिति और प्रचलित पितृसत्तात्मक स्थापना के कारण, पंचायत स्तर पर महिलाओ को नेतृत्व का पूरा लाभ नही मिल पाया। राजनीतिक शक्ति और निर्णय लेले का काम निर्वाचित महिला प्रतिनिधियो के पतियों द्वारा किया जाता है और इस घटना को सरपंच पति के रूप में जाना जाता है।
सरपंच पति बैठकों में जाते है और महिला सरपंच को घूंघट में कैद करके रखा जाता है। जब तक घूंघट रहेगा तब तक महिलाये आगे नही बढ सकती। ऐसे कई मामले सामने आये है जिनमें बताया गया है कि सरपंच पति ग्राम पंचायत के सारे कामकाज में दखल देते है साथ ही उन पर अभद्रता के आरोप भी लगाये गए है।कानून ने महिलाओं को अधिकार दिये है। जब कानून महिलाओ केा अधिकार देता है तो उन्हें राजनीतिक नेतृत्व का अवसर भी मिलना चाहिये। उन्हें सामाजिक, आर्थिक कार्यो के साथ-साथ राजनीतिक कार्यों में भी आगे बढना चाहिये। पंचायतो में सीटों का आरक्षण महिलाओ के सशक्तिकरण के लिये क्रान्तिकारी कदम था।
कम प्रतिनिधित्व का कारण पितृसत्ता आज भी एक कारण है, महिलाओं के पास हालांकि शक्ति है लेकिन वे इसका अनुभव नहीं करती हैं क्योंकि निर्णय पुरुष भागीदारों या परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा प्रभावित होते हैं। सरपंचपति के निर्माण के रूप में यह पंचायती में बहुत अधिक दृष्टिगोचर होता है। राजनीतिक शिक्षा का अभाव महिलाओं की सामाजिक गतिशीलता को प्रभावित करती है। शैक्षिक संस्थानों में प्रदान की जाने वाली औपचारिक शिक्षा नेतृत्व के अवसर पैदा करती है और नेतृत्व के लिए आवश्यक कौशल प्रदान करती है। राजनीति की समझ न होने के कारण उन्हें अपने बुनियादी और राजनीतिक अधिकारों की जानकारी नहीं है।
कार्य-जीवन संस्कृति में महिलाएं दीवारों के पीछे अधिक सीमित होती हैं, इस प्रकार बच्चों के पालन-पोषण जैसे घरेलू कार्यों को सुनिश्चित करना पड़ता है। इसका असर उनके राजनीतिक करियर पर पड़ता है। संसाधनों की कमी राजनीति और सार्वजनिक जीवन में भाग लेने से रोकने के लिए आर्थिक संसाधनों की कमी सबसे बड़ी बाधा है। महिलाओं को चुनाव लड़ने के लिए राजनीतिक दलों से पर्याप्त वित्तीय सहायता नहीं मिलती है। कुल मिलाकर राजनीतिक दलों का वातावरण भी महिलाओं के अनुकूल नहीं है, उन्हें पार्टी में जगह बनाने के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ता है और बहुआयामी मुद्दों का सामना करना पड़ता है। राजनीति में हिंसा बढ़ती जा रही है। अपराधीकरण, भ्रष्टाचार, असुरक्षा में उल्लेखनीय वृद्धि ने महिलाओं को राजनीतिक क्षेत्र से बाहर कर दिया है।
राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को देखे तो जर्मनी, न्यूजीलैंड और ताइवान कुछ ऐसे देश थे जिन्होंने प्रभावी रूप से महामारी को तेजी से नियंत्रित किया। उनके बीच सामान्य बात यह है कि सभी राज्य प्रमुखों के रूप में महिलाओं द्वारा शासित हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में भी, महिला राज्यपालों वाले राज्य ने अपने पुरुष समकक्षों को पीछे छोड़ दिया। महिला विधायकों या राज्य प्रमुखों को अधिक महिला केंद्रित माना जाता है। भारतीय पंचायती व्यवस्था में देखा जा सकता है जहाँ महिला प्रधानों ने सार्वजनिक शौचालयों, स्वयं सहायता समूहों, घरेलू हिंसा आदि जैसे मुद्दों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है।
जिस दर पर महिलाएं कार्यालय में संपत्ति जमा करती हैं, वह पुरुषों की तुलना में प्रति वर्ष 10 प्रतिशत अंक कम है। ये निष्कर्ष प्रायोगिक साक्ष्य के साथ मेल खाते हैं कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक न्यायपूर्ण, जोखिम-प्रतिकूल और आपराधिक और अन्य जोखिम भरे व्यवहार में संलग्न होने की संभावना कम हैं। यह पाया गया कि पुरुष और महिला राजनेताओं के अपने निर्वाचन क्षेत्रों में सड़क निर्माण के लिए संघीय परियोजनाओं पर बातचीत करने की समान संभावना है। हालांकि, इन परियोजनाओं के पूरा होने की देखरेख करने की संभावना महिलाओं की अधिक होती है। उदाहरण: महिला-नेतृत्व वाले निर्वाचन क्षेत्रों में अधूरी सड़क परियोजनाओं का हिस्सा 22 प्रतिशत अंक कम है। चुनाव के लिए खड़े होने पर पुरुष विधायकों के खिलाफ आपराधिक आरोप लंबित होने की संभावना लगभग तीन गुना अधिक होती है।
महिलाओं को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में पुरुषों के समान अधिकार होने चाहिए। भले ही संविधान महिलाओं को सभी क्षेत्रों में समान अधिकार की गारंटी देता है, सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों को समानता के आधुनिक लोकाचार के अनुकूल बनाने की आवश्यकता है। शासन के संस्थानों जैसे अदालतों, पुलिस, प्रशासनिक निकायों आदि को लैंगिक समानता पर ध्यान देना चाहिए। ज़िपर सिस्टम रवांडा जैसे देशों में अपनाई जाने वाली प्रथा है जहां पार्टी में हर तीसरी सीट महिलाओं के लिए आरक्षित है। बेहतर परिणाम के लिए इस तरह के बदलावों को अपनाया जा सकता है। जीवन के सभी क्षेत्रों में शिक्षा और समान स्वास्थ्य पहुंच प्रदान करने से महिलाओं को राजनीति और सार्वजनिक क्षेत्र में भाग लेने के लिए सशक्त बनाया जा सकता है। महिलाओं की भागीदारी के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों महत्वपूर्ण हैं।
पैतृक संपत्ति में महिलाओं के कानूनी अधिकारों के बावजूद महिलाओं को संपत्ति के अधिकार से वंचित रखा जाता है और इस प्रकार उनके पास आर्थिक संसाधनों की कमी होती है। संपत्ति के अपने अधिकार के बारे में समाज और महिलाओं के साथ सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। सामाजिक जागरूकता अभियान, शैक्षणिक संस्थानों, मीडिया, धार्मिक नेताओं, मशहूर हस्तियों, राजनीतिक नेताओं आदि की मदद से ठोस सामाजिक अभियानों के माध्यम से महिलाओं के खिलाफ लंबे समय से चले आ रहे पूर्वाग्रहों को खत्म करने की जरूरत है। हम निश्चित रूप से पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता लाने के लिए ग्लोबल जेंडर रिपोर्ट 2021 के अनुसार 135 साल तक इंतजार नहीं करना चाहते हैं। महिलाओं की भागीदारी सदियों से चली आ रही है और हम जिन गंभीर परिस्थितियों में हैं, उसे देखते हुए ये कच्चे कदम हैं, इसलिए, ऐसी नीतियों की तत्काल आवश्यकता है जो बेहतर सुधार सुनिश्चित कर सकें।
परन्तु सरपंच पति प्रथा ने महिलाओ को पहले जहा थी वही लाकर खड़ा कर दी है। इसके लिये सरकार को सरपंच पति चलन को एक प्रभावी कानून के माध्यम से नियंत्रित करना चाहिये। शासन के मामले में क्षमता निर्माण पर आगे अतिरिक्त काम की आवश्यकता है। महिलाओ के अधिकार के बारे में समाज में जागरूकता बढाने और पंचायत स्तर पर महिलाओ की भागीदारी के महत्व के बारे में नौकर शाही को संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है।