जाति- धर्म के स्वनिर्मित चक्रव्यूह में फंसती जा रही है भाजपा

बृजेश चतुर्वेदी
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता हथियाने के लिए जो जाति एवं धर्म का चक्रव्यूह रचकर 2017 में सफलता पायी थी 2022 में भाजपा जाति-धर्म के चक्रव्यूह में फंसती जा रही है। जाति एवं धर्म के चक्रव्यूह से निकलना भाजपा के लिए बहुत कठिन होता जा रहा है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने 29 अक्टूबर को योगी आदित्यनाथ के चेहरे पर चुनाव लड़ने की घोषणा की है। शाह ने नेताओं एवं कार्यकर्ताओं से यहाँ तक कह दिया कि अगर 2024 में मोदी को प्रधानमंत्री बनाना चाहते है तो 2022 में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाना होगा। राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने योगी आदित्यनाथ की जमकर प्रशंसा की। राजनीतिक एजेण्डा भी योगी आदित्यनाथ ने पेश किया। योगी के बढ़ते प्रभाव से पिछड़ी जातियों एवं ब्राह्मणों में बेचैनी बढ़ती जा रही है और जातियों की यही बेचैनी योगी आदित्यनाथ के हिन्दू चेहरे के सामने सबसे बड़ी चुनौती बन गयी है। भाजपा के सामने 2017 के जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण को बनाये रखना आसान नहीं रह गया है। जिस जातीय और धार्मिक चक्रव्यूह के माध्यम से 2017 में 40% मत और 312 सीटो की अप्रत्याशित सफलता प्राप्त की थी। अब वही जाति एवं धर्म भाजपा के गले की हड्डी बन गया है। 
2017 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में अतिपिछड़ें प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्य की अगुवाई में लड़े गए चुनाव में जाति एवं धर्म का एक ऐसा संतुलन बना जो विपक्ष पर भारी पड़ा। इस चुनाव में 40% मत अतिपिछड़ों की रहनुमाई करने वाले केशव मौर्य को अघोषित मुख्यमंत्री के रूप में देखा जा रहा था। जिसके कारण गैर यादव मतदाताओं ने एकतरफा भाजपा को समर्थन किया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर दंगों के कारण जाट-जाटव के जातीय व धार्मिक ध्रुवीकरण का लाभ मिला। मध्य एवं पूर्वांचल में अनुप्रिया पटेल, ओम प्रकाश राजभर जैसे पिछड़े नेताओं का गठबंधन भी भाजपा के लियर फायदे का सौदा रहा। श्मशान, कब्रिस्तान, दंगा जैसे तमाम मुद्दे ध्रुवीकरण का कारण बने। मोदी का एक बड़ा हिंदुत्व चेहरा होने के कारण सपा और बसपा के खिलाफ सवर्ण मतों ने एकजुट होकर भाजपा का समर्थन किया। चुनाव में अखिलेश यादव पर यादव जाति को अधिक लाभ लेने एवं मुस्लिमों को महत्व देने जैसे तुष्टिकरण का भाजपा ने जमकर प्रचार किया। जाति एवं धर्म समीकरण के साथ अखिलेश सरकार की सत्ता विरोधी लहर का भी फायदा भाजपा को मिला। परिणाम आने के बाद योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया। योगी को मुख्यमंत्री ही नहीं एक ऐसे बड़े हिंदुत्ववादी चेहरे के रूप में भाजपा ने प्रोजेक्ट किया। योगी ने 2019 लोकसभा और देश भर के राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव या हैदराबाद का नगर निगम चुनाव हो, सभी में प्रचार किया और भाजपा के हिंदुत्व ब्रांड के नेता बन गए। योगी ने अयोध्या में बार-बार जाकर दिया जलाने का कीर्तिमान भी स्थापित किया। यही नहीं हिंदुत्व चेहरे को और अधिक मजबूत बनाने के लिए योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में बुलडोजर की ऐसी कार्य संस्कृति पैदा की जो सबसे अधिक मुस्लिम और ब्राह्मण जाति के बाहुबलियों पर चली। योगी की कार्यशैली से अतिपिछड़ों की रहनुमाई के रूप में उप मुख्यमंत्री बनाये गए केशव मौर्य समय-समय पर अपमानित होते रहे। प्रधानमंत्री मोदी की तरह योगी ने भी सांसद, विधायक, मंत्री मंडल एवं सहयोगी व संगठन को अधिक महत्व नहीं दिया। एकला-चलो सिद्धांत पर मनमाने तरीके से अपने हिंदुत्व कार्यशैली का दवाब बनाकर सरकार चलाते रहे। जिसके कारण मोदी से मतभेद को लेकर भी ख़बरें छपती रही। प्रधानमंत्री कार्यालय में लबे समय तक वरिष्ठ नौकरशाह ए०के० शर्मा इस्तीफ़ा देकर उत्तर प्रदेश की सरजमीं पर सियासत करने आये थे। इसी दृष्टिकोण से विधान परिषद सदस्य बनाया गया लेकिन शर्मा को योगी ने महत्व नहीं दिया जैसा कि केंद्रीय नेतृत्व को अपेक्षा थी। 
योगी के हिंदुत्व चेहरे पर 2022 में चुनाव लड़ने की घोषणा भाजपा ने की है लेकिन इस घोषणा के साथ ही जातीय नेताओं में जबरदस्त आक्रोश और विरोध भी शुरू हो गया है। ओम प्रकाश राजभर गठबंधन तोड़कर सपा के साथ जुड़े हैं। निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय जिनके बेटे प्रवीण सांसद हैं और उन्हें विधान परिषद सदस्य बनाया गया है उन्होंने चेतावनी दी है कि अति पिछड़ों को अधिकार नहीं दिया तो भाजपा से गठबंधन तोड़ देंगे। अपना दल की अनुप्रिया पटेल की माँ कृष्णा पटेल और छोटी  बहन सपा से समझौता कर चुकी है। सत्ता में रहते हुये अनुप्रिया पटेल अपनी जाति को लाभ नहीं दिला पायी। जिसके कारण अनुप्रिया से ज्यादा सपा के साथ लड़ने जा रही उनके माँ का प्रभाव बढ़ा है। इन सब घटनाओं से भारतीय जनता पार्टी के पिछड़ें नेता भी असहज और ठगे से महसूस कर रहे हैं। केशव प्रसाद मौर्य एवं स्वामी प्रसाद मौर्य सहित अन्य पिछड़ें नेता अभी भी योगी को 2022 का चेहरा बनाए जाने के खिलाफ हैं। जिसका विरोध संकेतों में समय समय पर कर रहे हैं। इन घटनाओं से अखिलेश यादव सर्वमान्य रूप से पिछड़ों के सबसे बड़े नेता और भाजपा के विकल्प बनकर मजबूती से खड़े हैं। जातिगत गणना कराये जाने की मांग राज्य कार्यकारिणी में गैर यादव, अति पिछड़ों को महत्व देकर सपा ने भाजपा के लिए चुनौती बढ़ा दी है। पिछड़ों के बाद दलित नेता मायावती की सियासत को लेकर एक ऐसा परसेप्शन बन गया है कि वह राजनीति में भाजपा की स्लीपिंग पार्टनर बन गई हैं। इसका उदाहरण भी सामने दिखाई दे रहा है जिसमे मायावती ने अभी तक अपनी शैली में मोदी और योगी का विरोध नहीं किया है। केवल ट्विटर तक सीमित हैं। पार्टी ने सतीश चन्द्र मिश्रा और उनके परिवार को अधिक महत्व देकर दलितों में बेचैनी भी पैदा कर दी है। मायावती की इस सियासत से दलित नेता के रूप में उभर रहे चन्द्रशेखर को फायदा मिल रहा है । धीरे धीरे चन्द्रशेखर पश्चिमी से पूर्व तक मायावती के विकल्प के रूप में युवा दलितों का सबसे बड़ा चेहरा बन गये हैं। योगी आदित्यनाथ के खिलाफ चन्द्रशेखर ने चुनाव लड़ने की घोषणा करके भाजपा के सामने बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी है। जिस तेवर के साथ हिन्दुत्व का चेहरा बनकर योगी आदित्यनाथ ब्रांड बने हुये हैं। अगर चन्द्रशेखर को सभी दलों ने मिलकर प्रत्याशी घोषित कर दिया तो जातियों का एक बहुत बड़ा चेहरा चन्द्रशेखर होंगे। अगर ऐसा हुआ तो 2018 गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव के परिणाम ने यह साबित कर दिया कि योगी आदित्यनाथ का हिन्दुत्व चेहरा जातीय सपा के प्रत्याशी जातीय चेहरे से कमजोर रहा है। गोरखपुर लोकसभा का उपचुनाव भाजपा हारी थी। अब सबसे बड़ा गंभीर और चुनौती पूर्ण सवाल भाजपा के सामने खड़ा है कि वह योगी आदित्यनाथ के हिन्दुत्व चेहरे के साथ 2017 जैसा जातीय संतुलन कैसे बनाए।

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