सरकार सिर्फ चुनावी लाभ लेने की कोशिश में जुटी, विपक्ष भी मौन
हम दस दिन तक ट्वीट किए, एक करोड़ ट्वीट हुआ लेकिन सरकार ने ध्यान नहीं दिया, फिर हमें मजबूरी में सड़क पर उतरना पड़ा.’
‘सरकार समिति बनाकर हमारे ग़ुस्से को ठंडा करना चाहती है ताकि यूपी और दूसरे राज्यों के चुनावों पर असर ना हो, बेरोज़गार शांत रहें.
हम सरकार की साज़िश समझ रहे हैं.’
बृजेश चतुर्वेदी
ये राय आरआरबी-एनटीपीसी परीक्षा के नतीजों से नाराज प्रदर्शनकारी छात्रों की है. अधिकतर छात्र इन्हीं शब्दों में अपनी बात रखते हैं। बिहार की राजधानी पटना और कई शहरों में ग़ुस्साए छात्रों ने प्रदर्शन किए हैं. कई जगह हिंसा भी हुई है और ट्रेनों को आग लगा दी गई। अब तक आठ छात्र गिरफ़्तार किए गए हैं। राजधानी पटना में सुरक्षा के कड़े इंतज़ाम हैं। विरोध कर रहे छात्रों के बीच कुछ घंटे बिताकर ही एहसास होता है कि बेरोज़गार युवाओं का ये गुस्सा कितना गहरा है और अगर सरकार ने इसे शांत करने की कोशिश नहीं की तो ये प्रदर्शन एक बड़े आंदोलन में बदल सकते हैं। बिहार में महागठबंधन ने छात्रों के इस प्रदर्शन को समर्थन दिया है। पटना के भिखना पहाड़ी मोड़ और आसपास के इलाक़ों में जहां नज़र जाती है कोचिंग संस्थानों और हॉस्टलों के बोर्ड ही नज़र आते हैं। बिहार और आसपास के प्रांतों से आए लाखों छात्र यहां रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं। बीती 14 जनवरी को जब रेलबे रिक्रूटमेंट बोर्ड ने एनटीपीसी (नॉन टेक्निकल पॉपुलर कैटेगरी) परीक्षा के नतीजे घोषित किए तो छात्रों का ग़ुस्सा भड़क गया। छात्रों का आरोप है कि इन नतीजों में गड़बड़ी है और इनसे ऐसे छात्र बाहर हो जाएंगे जिनके पास मैरिट है।
‘हम सरकार की चाल समझ रहे हैं’
27 साल के शशिभूषण समस्तीपुर से हैं और पिछले छह सालों से पटना में रहकर परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं।शशि भूषण का कहना है कि इस दौरान उनके क़रीब पांच लाख रुपए ख़र्च हो गए हैं, लेकिन अब नतीजों में गड़बड़ी ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। शशिभूषण प्रदर्शन में शामिल थे। भिखुनिया मोड़ पर जब पुलिस और छात्रों के बीच पत्थरबाज़ी हुई तब शशि भूषण ने भी पत्थर उठा लिया था।भूषण कहते हैं, “इस सरकार ने हमारे सामने कोई रास्ता नहीं छोड़ा है, हम इतने आक्रोशित हो गए थे कि जब पुलिस ने छात्रों को पीटा तो हमने भी पत्थर उठा लिया।”
शशि भूषण जैसे हज़ारों छात्र हैं जिन्हें लगता है कि परीक्षा के नतीजों में हुई कथित गड़बड़ी ने उनके भविष्य को अंधकार में ला दिया है। छात्रों के प्रदर्शन के बाद केंद्र सरकार ने जांच के लिए एक समिति गठित की है. हालांकि छात्र इसे उनका ग़ुस्सा शांत करने की साज़िश के रूप में देख रहे हैं। शशि भूषण कहते हैं, “हम इस समिति को ख़ारिज करते हैं, ये समिति नहीं है ये यूपी चुनाव तक बेरोज़गारों के ग़ुस्सों को ठंडा करने की साज़िश है। एक बार छात्र चुप बैठ जाएगा, चुनाव हो जाएगा तो सरकार का जो मन करेगा वो वह करेगी।” छात्रों में नाराज़गी इस बात को लेकर भी है कि भर्तियां सही समय पर नहीं निकल रही हैं और निकल भी रही हैं तो उनमें देरी की जा रही है।
शशि भूषण कहते हैं, “ये भर्ती 2019 में निकली थी, लोकसभा चुनाव से पहले. इसी के नाम पर चुनाव जीत लिया गया अब तीन साल बाद तक भी नतीजे नहीं आए हैं. छात्र अब सरकार की नीयत को समझ रहे हैं।” प्रदर्शन करने वाले छात्रों की सबसे बड़ी नाराज़गी यही है कि उनके पास भर्ती परीक्षाओं और नतीजों का कैलेंडर नहीं है। छात्र कहते हैं, हमें ये स्पष्ट कैलेंडर चाहिए जिससे पता चले कि सीबीटी-2 (कम्प्यूटर बेस्ड टेस्ट), स्किल टेस्ट और इंटरव्यू कब होगा और अंतिम नतीजे कब आएंगे. समिति को रिपोर्ट जब देनी है तब दे, लेकिन परीक्षा की तारीख़ अभी दे।
बढ़ती जा रही है निराशा
छात्रों के इस प्रदर्शन के पीछे कोई चेहरा नहीं है। न ही कोई नेतृत्व है। 14 जनवरी को नतीजे आने के बाद से ही छात्रों में नाराज़गी थी। सोशल मीडिया पर विरोध किया जा रहा था।जब दस दिनों तक सोशल मीडिया पर छात्रों के विरोध को नज़रअंदाज़ किया गया तो वो सड़कों पर उतर गए। अब भी ना ही छात्रों का कोई नेता है और ना ही इस प्रदर्शन का कोई चेहरा है। बेरोज़गार छात्रों का ये ग़ुस्सा कई सालों से पनप रहा है. भर्तियां निकल नहीं रही हैं और तैयारी में पैसा और समय दोनों ख़त्म होता जा रहा है. नौकरी ना मिलने से उनमें अवसाद बढ़ रहा है। पंकज कुमार कहते हैं, “मैंने पांच चरणों में परीक्षा दी है, हर बार पास हुआ हूं, लेकिन नौकरी नहीं लगी है। सरकार नतीजों की तारीख आगे बढ़ाती जाती है, कभी चार महीने नतीजा टाल देते हैं, कभी छह महीने, अब हमारे सब्र का बांध टूट रहा है।” पंकज कहते हैं, “कभी विधानसभा चुनाव के लिए भर्ती आगे बढ़ा देते हैं, कभी लोकसभा चुनाव के लिए। इसी तरह से हमें परेशान किया जा रहा है. हमारा तो समय और पैसा दोनों ख़र्च हो रहा है।”
तैयारी करने वाले कई छात्रों का कहना है कि उनके सामने हालात इतने मुश्किल हैं कि कई बार उन्हें भूखे ही सो जाना पड़ता है। बहुत से छात्र ऐसे हैं जो कई सालों से तैयारी कर रहे हैं. उन्हें लगता है कि समय उनके हाथ से निकलता जा रहा है।
प्रदर्शनों का ना कोई नेता ना चेहरा ना योजना
छात्रों के इस प्रदर्शन को कई छात्र संगठनों ने समर्थन तो दिया है लेकिन इसका कोई चेहरा या नेता नहीं है। ना ही छात्रों ने इसके लिए कोई योजना बनाई है. सोशल मीडिया के ज़रिए ही छात्रों को जानकारियां मिल रही हैं और वो एकत्रित हो रहे हैं। छात्र संगठन एआईएसए (आइसा) से जुड़े विकास कहते हैं, “छात्रों का ये आंदोलन स्वत:स्फूर्त है, इसके पीछे कोई नेता नहीं है। ये पिछले आठ सालों का ग़ुस्सा है जो अब फूट पड़ा है। अभी ये प्रदर्शन रेलवे एनटीपीसी परीक्षा को लेकर हो रहे हैं, लेकिन इस गुस्से के पीछे सिर्फ़ एनटीपीसी नहीं है। भारत में बेरोज़गारी की स्थिति के विरोध में गुस्सा बढ़ता जा रहा है. अब रेलवे एनटीपीसी के नतीजों में गड़बड़ी ने इसे हवा दे दी है।”
विकास कहते हैं, “यहां के किसान, मज़दूर, वंचित तबके के लोग रेलवे की ग्रुप डी भर्ती के जरिए अच्छे जीवन की कल्पना करते हैं। इससे लोगों की बहुत उम्मीदें जुड़ी होती हैं, अब इसमें ही धांधली हुई तो छात्रों का गुस्सा फूट पड़ा है।” इंकलाबी नौजवान सभा से जुड़े संतोष आर्य कहते हैं, “कई स्तर पर छात्रों के बीच में समन्वय है, लेकिन नेतृत्व नहीं है. छात्र व्हाट्सऐप और सोशल मीडिया पर जुड़े हुए हैं। हमें लगता है कि अगर छात्रों के इस आंदोलन को नेतृत्व नहीं मिला तो हिंसा और अधिक हो सकती है।” आइसा से ही जुड़ी प्रियंका प्रियदर्शी कहती हैं, “जो हो रहा है ये अचानक नहीं हुआ। भले ही सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे, ट्रेनों को रोक रहे छात्र अचानक दिख रहे हैं, लेकिन ये गुस्सा कई साल से इकट्टा हो रहा है। जो छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं वो अलग-अलग संगठनों से जुड़े नहीं रहे हैं, ऐसे में हो सकता है कि नेतृत्व का अभाव दिखा हो, लेकिन ये प्रदर्शन ऐसा रूप लेगा कि इससे ही नेतृत्व पैदा हो जाएगा।” वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने अपने आप को अभी तक इन प्रदर्शनों से दूर ही रखा है। हालांकि कहीं ना कहीं छात्रों के मुद्दों पर संगठन ने सहमति दी है। एबीवीपी से जुड़े सुधांशु कहते हैं, “छात्रों के मुद्दों का हम समर्थन करते हैं लेकिन हम समस्या पर नहीं समाधान पर फ़ोकस करना चाहते हैं। हमने इसे लेकर अधिकारियों से बैठक की है और छात्रों की मांगों को रखा है. हम प्रदर्शन में शामिल नहीं है, लेकिन छात्रों के साथ हैं।”
आगे क्या हो सकता है?
समाजशास्त्री पुष्पेंद्र सिंह कहते हैं, “बेरोज़गारी इस समय देश में सबसे बड़ा मुद्दा है। बिहार में ये इसलिए भी और गंभीर है क्योंकि यहां स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा संस्थान ख़राब स्थिति में हैं जिसकी वजह से बिहारी युवा पिछड़ गए हैं। बिहार के युवा को आमतौर पर उम्मीद ग्रेड थ्री और ग्रेड फ़ोर नौकरियों की तरफ ही देखती है।” पटना के टिस संस्थान (टाटा स्कूल ऑफ़ सोशल साइंसेज़) के चेयरमैन प्रोफ़ेसर पुष्पेंद्र सिंह को डर है कि अगर इस ग़ुस्से को थामा नहीं गया तो ये विकराल रूप ले सकता है। पुष्पेंद्र सिंह कहते हैं, “धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते बेरोज़गारी ऐसे स्तर पर पहुंच गई हैं कि अब ग़ुस्सा बढ़ता ही जा रहा है. ये ग़ुस्सा ऐसे स्तर पर पहुंच गया है कि अगर इसे हवा लगी तो ये विकराल रूप ले सकता है, अनियंत्रित तरीके से फैल सकता है. एनटीपीसी रेलवे बोर्ड के मामले के बाद इस समय यही हो रहा है।” प्रोफ़ेसर सिंह कहते हैं, “आमतौर पर इस तरह के आंदोलन स्वतःस्फूर्त होते हैं, लेकिन अगर ये टिक गया तो ये स्वतःस्फूर्त नहीं रहेगा, इसमें नेतृत्व आ जाएगा, दूसरे दल और संगठन भी शामिल हो जाएंगे। इसे दिशा देने की कोशिश की जाएगी और इसका राजनीतिकरण होगा। 1973 में भी ऐसी ही स्थिति हुई थी और 1974 में छात्र आंदोलन ने राजनीतिक दिशा ले ली थी. ऐसा लग रहा है कि 1974 के छात्र आंदोलन जैसी स्थितियां बन रही हैं।”
छात्रों को सरकार पर विश्वास नहीं है. कहीं ना कहीं सरकार का संदेश छात्रों तक नहीं पहुंच पा रहा है। छात्रों के इस अविश्वास की वजह बताते हुए पुष्पेंद्र सिंह कहते हैं, “सरकार में रोज़गार के मामलों को टालने का ट्रेंड बन गया है। भर्तियो को खींचा जा रहा है, ठेकों पर नियुक्ति की जा रही है। परीक्षाओं में देरी की जा रही है, नतीजे निकालने में देरी की जा रही है। नतीजों के बाद नियुक्ति पत्र देने में देरी की जा रही है।” ”किसी ना किसी बहाने से भर्ती में कमी निकालकर टालने की कोशिश की जाती है। ये एक पैटर्न है और आज का यूथ इतना बेवकूफ़ नहीं है कि वो इस पैटर्न को ना समझ पाए। वो इसे देख रहा है और समझ रहा है और धीरे-धीरे उसका आक्रोश बढ़ता जा रहा है. इससे सरकार के प्रति छात्रों का भरोसा टूट गया है।” छात्रों का ये प्रदर्शन आगे कहां जाएगा ये कहना मुश्किल है, लेकिन ये बात बिल्कुल साफ़ है कि अगर उनके आक्रोश को थामा नहीं गया तो परिस्थितियां बहुत गंभीर हो सकती हैं।