समय से संवाद करता ‘सत्यवान सौरभ’ का दोहा संग्रह ‘तितली है खामोश’

–डॉo रामनिवास ‘मानव’

(अमेजन, फ्लिपकार्ट और अन्य ऑनलाइन प्लेटफार्म पर उपलब्ध यह दोहा संग्रह कुछ आप बीती और कुछ जगबीती से परिपूर्ण है। यह वर्तमान समय से संवाद करता हुआ काव्य कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। मुझे विश्वास है यह दोहा संग्रह पाठकों को प्रभावित करेगा। सत्यवान ‘सौरभ’ के दोहा संग्रह “तितली है खामोश” के दोहे आज के सामाजिक परिवेश आवश्यकताओं तथा लोक की भावनाओं का जीवंत चित्रण है। युवा दोहाकार ने अपने दोहों में जीवन के हर पहलू को छुआ है। सहज और सरल भाषा के साथ इस कृति के दोहों का धरातल बहुत विस्तृत है।)

‘दोहा’ हिंदी का एक पुराना और प्रतिष्ठित अर्द्धसम मात्रिक छंद है। भक्तिकाल में रामबाण और रीतिकाल में कामबाण बनकर चलने वाला यह लघु छंद वर्तमान काल में अग्निबाण बनकर लक्ष्य-बेधन कर रहा है। दोहा भले ही ‘देखन में छोटा’ लगे, किंतु ‘नावक के तीर’ की भांति इसका घाव बड़ा गहन और गंभीर होता है। अपने इसी पैनेपन और मारक क्षमता के कारण, प्राचीन छंद होते हुए भी, दोहे ने कवियों और श्रोताओं/पाठकों पर सदैव अपना सम्मोहन बनाये रखा है।

कभी रीति और नीति, कभी राग और विराग, तो कभी अध्यात्म और उपदेश के रंग में रंगे, 13-11 के क्रम से चार चरणों और अड़तालिस मात्राओं के दोहा छंद ने, अपने वामन कलेवर में भावों का विराट संसार समाहित करने का सार्थक प्रयास हर युग में किया है। दोहा तुलसी और जायसी का छंद है, तो रहीम और रसखान तथा वृंद और बिहारी का भी, किंतु वास्तव में यह कबीर का छंद है। 21वीं सदी में नये-नये दोहाकार साहित्य-जगत् में दस्तक दे रहे हैं, जिनके दोहों की भाषा-शैली पर कबीर का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। युवा कवि सत्यवान ‘सौरभ’ एक ऐसे ही संभावनाशील दोहाकार हैं, जो अपने सृजन के माध्यम से, दोहा छंद की सार्थकता सिद्ध कर रहे हैं। उनका नव-प्रकाशित दोहा-संग्रह ‘तितली है खामोश’ इस सत्य का साक्षी है।

कविता, गीत, गजल आदि अनेक साहित्यिक विधाओं के साथ विभिन्न विषयों पर फीचर लिखने वाले सत्यवान ‘सौरभ’ को दोहा-लेखन में विशेष सफलता मिली है। इनके दोहों का विषय-वैविध्य सहज ही द्रष्टव्य है। बचपन, माता-पिता, घर-परिवार, रिश्ते-नाते, पारिवारिक विघटन, बदलते परिवेश और पर्यावरण-प्रदूषण से लेकर सांस्कृतिक प्रदूषण तक सभी विषयों पर इन्होंने लेखनी चलाई है। पाश्चात्य संस्कृति तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कारण बदलती परिस्थितियों ने सर्वाधिक प्रभाव हमारे घर-परिवार और ग्राम्य जीवन पर डाला है। आज गांव कस्बे, कस्बे शहर और नगर महानगर बनते जा रहे हैं। विकास की अंधी दौड़ ने बच्चों का बचपन, घर-परिवार की सुख-शांति और गांव-देहात का भाईचारा छीन लिया है। लगता है, जैसे गांव में गांव नहीं रहा-

लौटा बरसों बाद मैं, उस बचपन के गांव।
नहीं बची थी अब जहां, बूढ़ी पीपल छांव।।

शिक्षा के दबाव और माता पिता की उपेक्षा का सर्वाधिक दुष्प्रभाव बच्चों के मन-मस्तिष्क पर पड़ा है। संयुक्त परिवारों के टूटने से दादा-दादी, नाना-नानी के प्यार और दुलार से भी बच्चे वंचित हो गए हैं। उनका बचपन जैसे कहीं खो गया है। साइबर क्रांति के दुष्प्रभाव से भी बच्चे अछूते नहीं रहे हैं। तभी तो-

मूक हुई किलकारियां, गुम बच्चों की रेल।
गूगल में अब खो गये, बचपन के सब खेल।।
धूल आजकल फांकता, दादी का संदूक।
बच्चों को अच्छी लगे, अब घर में बंदूक।।

गरीब, अनाथ और बेसहारा बच्चों की दशा-दुर्दशा तो और भी चिंतनीय और चिंताजनक है। स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी करोड़ों बच्चे शिक्षा से वंचित हैं; उन्हें छोटे-मोटे काम करके या कूड़ा-करकट बीनकर गुजारा करना पड़ता है। बच्चों के जिन हाथों में पुस्तक होनी चाहिए थी, वे कूड़ा-कचरा बीनने या फुटपाथों और चौक-चौराहों पर भीख मांगने को विवश हैं। कवि के शब्दों में-

स्याही, कलम, दवात से, सजने थे जो हाथ।
कूड़ा-करकट बीनते, नाप रहे फुटपाथ।।

रिश्तों का अवमूल्यन नये दौर का सबसे बड़ा उपहार है। संबंध सिसक रहे हैं; उनकी गर्माहट, प्रेम और आत्मीयता की मिठास, सब गायब है। अर्थ और स्वार्थ अब रिश्तों की गहराई मापने का पैमाना बन चुके हैं। वक्त पड़ने पर जैसे ही झूठ का पर्दा उठता है, रिश्तों की सच्चाई सबके सामने आ जाती है-

वक्त कराता है सदा, सब रिश्तों का बोध।
पर्दा उठता झूठ का, होता सच पर शोध।।

अनैतिकता की नींव पर खड़े इस नए दौर में भ्रष्टाचार, शोषण, अपहरण, बलात्कार, लूटपाट और हत्या जैसे जघन्य अपराधों का बोलबाला है। तंत्र पर गनतंत्र और आमजन पर माफिया हावी है। थाने और जेल अपराध के अड्डे बन गए हैं। सत्ता, पुलिस और अपराध के गठजोड़ से जनता संत्रस्त ही नहीं, भयभीत भी है। सरेआम अपराध होते देखकर भी लोग आंखें बंद कर लेते हैं। सच को सच कहने का साहस किसी में नहीं रहा। आज समाज कौरव-सभा बनकर रह गया है-

चीरहरण को देखकर, दरबारी सब मौन।
प्रश्न करे अंधराज से, विदुर बने अब कौन।।

परिणाम यह कि हमारा उत्सवधर्मी समाज अब नीरसता की झील में डूब-उतर रहा है। उसका सारा जोश, आनंद और उल्लास क्षीण होता जा रहा है; अपरिचय-बोध ने उसे आत्म-केंद्रित बना दिया है। इस समूचे युगबोध को, दोहे की मात्र दो पंक्तियों में, दोहाकार ने कैसे बड़ी सहजता से व्यक्त कर दिया है, देखिये-

सूनी बगिया देखकर, तितली है खामोश।
जुगनू की बारात से, गायब है अब जोश।।

निष्कर्ष-स्वरूप कहा जा सकता है कि दोहाकार सत्यवान ‘सौरभ’ के दोहों की दशा और दिशा दुरुस्त है। भाषा-शैली के परिष्कार से दोहों में और निखार आयेगा, ऐसा मुझे विश्वास है। बहरहाल, प्रथम दोहा-संग्रह के प्रकाशन पर कवि ‘सौरभ’ को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं भी।

Check Also

बाजारीकरण की भेंट चढ़े हमारे सामाजिक त्यौहार

हिंदुस्तान त्योहारों का देश है। त्यौहार हमको सामाजिक और संस्कारिक रूप से जोड़ने का काम …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *