बृजेश चतुर्वेदी
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में गांव, गरीब, किसान, छात्र, महिला, बेरोजगार सभी की मूलभूत समस्याओं से जुड़े मुद्दे गायब हो गए हैं। सियासत पूरी तरह जाति और धर्म तथा चेहरों पर सिमटती जा रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अब तक राजनीतिक दलों द्वारा जारी की जा रही प्रत्याशियों की सूची है। भाजपा, बसपा, आप पार्टी और सपा रालोद गठबंधन ने सूची जारी की है उसमें प्रमुखता से यह बताया जा रहा है कि कितने कितने प्रत्याशी किस-किस जाति और धर्म के बनाये गए है। सभी राजनीतिक दलों में इस बात की होड़ लगी है कि दलित पिछड़ें अल्पसंख्यकों को कितनी कितनी सीटें दी जा रही है। भारतीय जनता पार्टी के 107 प्रत्याशियों की सूची में कोई भी मुस्लिम प्रत्याशी नहीं लिया गया है। पिछड़ों, दलितों, जाट, ब्राह्मण, ठाकुर, लोध आदि सभी जातियों के प्रत्याशियों का नाम प्रमुखता से बताया गया है और यह बताने का प्रयास किया गया है कि दलितों, पिछड़ों की सबसे बड़ी हितैषी भाजपा है और सबसे अधिक प्रतिनिधित्व भाजपा में ही है। बसपा द्वारा जारी 57 प्रत्याशियों की सूची में मुस्लिम, दलित, ब्राह्मण, ठाकुर, पिछड़ों की संख्या बताते हुए प्रमुखता से प्रत्याशियों के नामों का उल्लेख किया गया है। सपा और रालोद गठबंधन की जारी सूची में भी जाट, पिछड़ें, मुस्लिम, ब्राह्मण, ठाकुर आदि प्रत्याशियों का जातियों के साथ उल्लेख किया है। कांग्रेस की 150 प्रत्याशियों की सूची में, जिसमे 40% महिलाएं है प्रियंका ने भी पिछड़े, दलित, मुस्लिम और महिलाओं की संख्या का प्रमुखता से उल्लेख किया है।
कुल मिलाकर कह सकते है कि अभी तक विपक्ष मंहगाई, बेरोजगारी, छुट्टा जानवर, गरीबों, पिछड़ों, दलितों, बेरोजगारों आदि तमाम तरह की समस्याओं को लेकर सरकार पर आरोप लगाता रहा है जबकि मोदी योगी की डबल इंजन सरकार अपनी उपलब्धियों को गिनाती थी। दोनों तरफ से जनता के मुद्दे और सरकार की उपलब्धियां गायब होती जा रही है। जिस तरह से प्रत्याशियों के जाति-धर्म के नाम को लेकर सूचियां जारी की जा रही है। उसी तरह बूथ स्तर तक जाति धर्म आधारित समीकरण बनाये जा रहे है। पूरा चुनाव मुद्दों से हटकर जाति-धर्म तक सिमटता जा रहा है। सत्ता पक्ष या विपक्ष किसी में भी जन समस्याओं को मुद्दा बनाने में रूचि नहीं दिखाई दे रही है। केवल जीत के लिए जाति धर्म आधारित सियासत हो रही है।
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