गाँव-गाँव अब रो रहा, गांधी का स्वराज।
भंग पड़ी पंचायतें, रुके हुए सब काज।।

 महिलाओं तथा दूसरे पिछड़े और हाशिये पर खड़े समाज के सशक्तिकरण जैसी उपलब्धियों के बावजूद विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया काफी धीमी, सुस्त और असंतोषजनक है। इन संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया जाना जहां एक ओर इस विविधताओं वाले इस देश में बरसो से हाशिये पर पड़े समाज को मुख्यधारा में समावेशित किये जाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था वहीं अब इस सिलसिले में केन्द्र और राज्य के राजनीतिक हुक्मरानों की ओर से एक परिवर्तनकारी और ठोस कदम उठाये जाने की जरूरत है। उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले वक्त में पंचायतें देश के लघु गणतंत्र के रूप में उभर कर सामने आयेंगी। पंचायती राज संस्थाओं को कर लगाने के कुछ व्यापक अधिकार दिये जाने चाहिये।

-डॉ सत्यवान सौरभ

हम देखते हैं कि कैसे भारत के विशाल और भव्य लोकतंत्र ने पंचायतों को ताकत दी है और सत्ता के विकेन्द्रीकरण का काम किया है। ये हमारे लोकतंत्र की खुबसूरती ही है कि आज देश की कुल ढ़ाई लाख से अधिक पंचायतों में से लगभग आधी पंचायतों का नेतृत्व महिलाएं कर रही हैं।  देश की पंचायतें मजबूत हो रही हैं। अंतिम पंक्ति में खड़ा व्यक्ति भी आज सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चत कर रहा है। मज़बूती से अपनी बात कह पा रहा है। फैसले ले रहा है। और इन सब में महिलाएं कंधे से कंधा मिला कर देश को आगे बढ़ाने का काम कर रही हैं। पंचायतों को सशक्त, आत्मनिर्भर और आधुनिक तकनीकों से लैस करने का काम किया जा रहा है। पंचायती राज व्यवस्था में विकास का प्रवाह निचले स्तर से ऊपरी स्तर की ओर करने के लिये वर्ष 2004 में पंचायती राज को अलग मंत्रालय का दर्ज़ा दिया गया। भारत में पंचायती राज के गठन व उसे सशक्त करने की अवधारणा महात्मा गांधी के दर्शन पर आधारित है। गांधी जी के शब्दों में- “सच्चा लोकतंत्र केंद्र में बैठकर राज्य चलाने वाला नहीं होता, अपितु यह तो गाँव के प्रत्येक व्यक्ति के सहयोग से चलता है।”

24 अप्रैल 1993 को भारत ने अपने लोकतंत्र को मजबूत करने की नीयत से इसे और ज्यादा समावेशी और सहभागी बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया। सरकार की 73वें संविधान संशोधन एक्ट की अधिसूचना या फिर पंचायती राज अधिनियम (बाद में शहरी स्थानीय निकायों के लिए 74वां अधिनियम), से देश की संघीय व्यवस्था में एक तीसरी श्रेणी की शुरुआत हुई और इस तरह से विकेन्द्रीकृत शासन का एक नया युग शुरु हुआ। उल्लेखनीय तरीके से 73वें संविधान संशोधन ने देश में विकेन्द्रीकृत शासन के लिए या कहें तो स्थानीय स्व शासित संस्थाओं के लिए संवैधानिक औऱ विधिक अधिकार प्रदान किए।

इतने क्रांतिकारी विधेयक को पास करना आसान नहीं था क्योंकि कई वरिष्ठ नीति निर्माता इसे अपने अस्तित्व के लिए ही खतरा मान रहे थे। लिहाजा इसमें कोई हैरानी नहीं हुई जब राजीव गांधी सरकार के 1989 में लाये गये 64वें संविधान संशोधन बिल का राज्यसभा में समूचे विपक्ष ने विरोध किया। इस बिल में त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थाओं का प्रावधान था और विरोध करने वालों में विपक्षी सदस्यों के साथ ही सत्तारूढ़ कांग्रेस के भी सदस्य थे जो इसे अपनी ताकत और राजनीतिक आधार के लिए खतरा मान रहे थे। तीन साल के बाद राजीव गांधी के बाद प्रधानमंत्री बने नरसिंहा राव को 1992 में 73वें संशोधन विधेयक को पास कराने में काफी मान मनौव्वल और कड़ी मशक्कत करनी पड़ी यहां तक कि   संसद सदस्य स्थानीय क्षेत्र विकास योजना फंड का भी निर्माण करना पड़ा। हालांकि यह एक्ट मूल बिल से कई मायनों में काफी हल्का कर दिया गया था लेकिन फिर भी इसमें कई ऐसे बुनियादी प्रावधान मौजूद थे जिसकी वजह से इसे ऐसे तस्वीर बदल देने वाले कानून की संज्ञा दी गई जिससे देश में वास्तविक तौर पर सहभागी लोकतंत्र स्थापित हो।

पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देने और उन्हें स्व शासित संस्थाओं के तौर पर पहचान देने वाले संविधान के 73वें संशोधन ने देश के लोकतांत्रिक मानस में गहरे तक अब अपनी पैठ बना ली है। इसकी एक बानगी है इनकी संख्या। देश में आज चुने हुए प्रतिनिधियों यानी सांसद औऱ विधायकों की संख्या महज पांच हजार के आसपास है जबकि पंचायती राज अधिनयुम के तहत देशभर में विभिन्न स्तरों (ग्राम सभा, पंचायत समिति औऱ जिला परिषद) पर लगभग तीस लाख से ज्यादा प्रतिनिधि हैं जो कि दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था है। 73वें संशोधन ने लोकतंत्र और राजनीतिक समावेशिता की जड़े मजबूत की हैं और समाज के सबसे पिछड़े और वंचित तबकों की भागीदारी को बढ़ाया है। 73वें संशोधन के तहत महिलाओं, अनुसूचित जातियों और जनजातियों तथा अन्य पिछ़ड़े वर्ग के लिए लागू होने वाले बाध्यकारी आरक्षण के चलते इन समाज के दस लाख से अधिक नये प्रतिनिधियों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में स्थान मिला है। निर्विवाद रूप से ये देश में राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं के लिए सबसे ज्यादा सकारात्मक बदलाव लाने वाली प्रक्रिया है। जहां एक ओर संसद औऱ राज्य की विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी महज 8 फीसदी है वहीं इस क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या यानी लगभग 49 फीसदी चुनी हुई प्रतिनिधि महिलाएं हैं। आज देश में महिला प्रतिनिधियों की तादाद लगभग 14 लाख है। इनमें से 86 हजार स्थानीय निकायों की प्रतिनिधि हैं।

अधिकारों औऱ क्षमता से जुड़े मुद्दों के अलावा कई दूसरे गंभीर मुद्दे पंचायतों के लिए गंभीर हैं, विशेषतौर पर अपर्याप्त वित्तीय शक्तियों का मामला जिसकी वजह से इन स्व शासित संस्थाओं को राज्य औऱ केन्द्र की सरकारों की दया पर निर्भर रहना पड़ता है। एक ओर जहां पंचायतों को कई कामों की जिम्मेदारी दी गई है, वहीं पर दूसरी ओर उनके लिए कर लगाने का अधिकार बेहद सीमित रखा गया है। कोई भी पंचायत किसी संपत्ति पर कर नहीं लगा सकती। यहां तक कि इस मामले में न्यायपालिका से भी उन्हें बहुत मदद नहीं मिली। इस मामले में एक बेहद चर्चित दाभोल की घटना का जिक्र जरूरी है जहां पर एनरॉन कंपनी पर एक ग्राम सभा ने टैक्स लगाने की कोशिश की लेकिन वो अदालत में हार गई। इस तरह से पंचायतों के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाने और उनके औचित्य को स्पष्ट करने का प्रमुख कार्य अभी दिवास्वप्न ही लगता है।

पंचायतों के पास वित्त प्राप्ति का कोई मज़बूत आधार नहीं है उन्हें वित्त के लिये राज्य सरकारों पर निर्भर रहना पड़ता है। ज्ञातव्य है कि राज्य सरकारों द्वारा उपलब्ध कराया गया वित्त किसी विशेष मद में खर्च करने के लिये ही होता है। कई राज्यों में पंचायतों का निर्वाचन नियत समय पर नहीं हो पाता है। कई पंचायतों में जहाँ महिला प्रमुख हैं वहाँ कार्य उनके किसी पुरुष रिश्तेदार के आदेश पर होता है, महिलाएँ केवल नाममात्र की प्रमुख होती हैं। इससे पंचायतों में महिला आरक्षण का उद्देश्य नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। क्षेत्रीय राजनीतिक संगठन पंचायतों के मामलों में हस्तक्षेप करते हैं जिससे उनके कार्य एवं निर्णय प्रभावित होते हैं। इस व्यवस्था में कई बार पंचायतों के निर्वाचित सदस्यों एवं राज्य द्वारा नियुक्त पदाधिकारियों के बीच सामंजस्य बनाना मुश्किल होता है, जिससे पंचायतों का विकास प्रभावित होता है।

आखिरी लेकिन सबसे अहम बात ये है कि अभी तक पंचायतों को ई गवर्नेंस के दायरे में लाने के लिए काफी कम प्रयास किये गये हैं। इस बात में कोई शक नहीं है कि नये जमाने की तकनीक (आईसीटी) का फायदा उठाते हुए जवाबदेही, पारदर्शिता और कार्यसाधकता को बढ़ाया जा सकता है। हालांकि इसके बावजूद देश की ढाई लाख पंचायतों में से आधी पंचायते भी ई-पंचायत प्रोजेक्ट के दायरे में नहीं हैं। यहां ये ध्यान रखना चाहिए कि पंचायतों के लिए आईसीटी अभियान 2004 में ही शुरू किया गया था।

अंत में ये कहना सही होगा कि महिलाओं तथा दूसरे पिछड़े और हाशिये पर खड़े समाज के सशक्तिकरण जैसी उपलब्धियों के बावजूद विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया काफी धीमी, सुस्त और असंतोषजनक है। इन संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया जाना जहां एक ओर इस विविधताओं वाले इस देश में बरसो से हाशिये पर पड़े समाज को मुख्यधारा में समावेशित किये जाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था वहीं अब इस सिलसिले में केन्द्र और राज्य के राजनीतिक हुक्मरानों की ओर से एक परिवर्तनकारी और ठोस कदम उठाये जाने की जरूरत है। उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले वक्त में पंचायतें देश के लघु गणतंत्र के रूप में उभर कर सामने आयेंगी। पंचायती राज संस्थाओं को कर लगाने के कुछ व्यापक अधिकार दिये जाने चाहिये। पंचायती राज संस्थाएँ खुद अपने वित्तीय साधनों में वृद्धि करें। इसके अलावा 14वें वित्त आयोग ने पंचायतों के वित्त आवंटन में बढ़ोतरी की है। इस दिशा में और भी बेहतर कदम बढ़ाए जाने की ज़रुरत है।

 पंचायती राज संस्थाओं को और अधिक कार्यपालिकीय अधिकार दिये जाएँ और बजट आवंटन के साथ ही समय-समय पर विश्वसनीय लेखा परीक्षण भी कराया जाना चाहिये। इस दिशा में सरकार द्वारा ई-ग्राम स्वराज पोर्टल का शुभारंभ एक सराहनीय प्रयास है।   महिलाओं को मानसिक एवं सामाजिक रूप से अधिक-से-अधिक सशक्त बनाना चाहिये जिससे निर्णय लेने के मामलों में आत्मनिर्भर बन सके। पंचायतों का निर्वाचन नियत समय पर राज्य निर्वाचन आयोग के मानदंडों पर क्षेत्रीय संगठनों के हस्तक्षेप के बिना होना चाहिये। पंचायतों का उनके प्रदर्शन के आधार पर रैंकिंग का आवंटन करना चाहिये तथा इस रैंकिंग में शीर्ष स्थान पाने वाली पंचायत को पुरुस्कृत करना चाहिये।

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