’पोषण माह स्पेशल’ कुपोषण : समस्या एवं चुनौती

– डॉ0 पूजा सिंह, बाल विकास परियोजना अधिकारी तालग्राम कन्नौज

देश में कुपोषण की समस्या बहुत पहले से ही व्याप्त है। औपनिवेशिक भारत में वर्ष 1814 में मद्रास, बॉम्बे और बंगाल प्रेसिडेंसी में पब्लिक हेल्थ के लिए स्पेशल कमिश्नर अप्वॉइंट किए गए थे जिनका काम स्वास्थ्य समस्याएं और उनका समाधान बताना था। परंतु इनका मुख्य फोकस आर्मी के लोगों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के ऊपर था तथा आम जनता के स्वास्थ्य पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। स्वास्थ्य सुविधाओं की शहर से ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंच महामारी के दौर में जैसे प्लेग, कॉलरा, स्मॉल पॉक्स के समय में हुई। भारतीय जनसंख्या की विविधता और उनका स्वास्थ्य ब्रिटिश इंडिया में बहुत ज्यादा महत्व नहीं रखते थे। स्वतंत्रता से पूर्व भारत में सोखोय कमेटी और भोर  कमेटी थी। इसके द्वारा बताया गया था कि भारत में खराब स्वास्थ्य के लिए कुपोषण और अल्प पोषण, गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा,  स्वच्छता की अनदेखी और बाल विवाह जिम्मेदार है। रिपोर्ट के अनुसार बच्चे, गर्भवती और धात्री माताओं के भोजन में प्रमुख पोषक तत्वों की कमी होती है जिस कारण कुपोषण, बाल मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर की संभावना बहुत ज्यादा बढ़ जाती है. देश में बहुत व्यापक स्तर पर कुपोषण विद्यमान है। 

स्वतंत्रता के पश्चात, 1959 में मुदालियर कमेटी को भोर कमेटी के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए स्थापित किया गया। इस कमेटी ने बताया गया कि शिशु एवं बाल मृत्यु दर का प्रमुख कारण कुपोषण है। इस समस्या को देखते हुए यूनिसेफ द्वारा स्किम्ड मिल्क पाउडर के कंजर्वेशन प्लांट लगवाए गए और बच्चों में स्किम्ड मिल्क का वितरण किया गया। कमेटी ने सुझाव दिया कि केंद्र और राज्य सरकार में  न्यूट्रिशन ऑफिसर होने चाहिए जो डाइट सर्वे करें,  डेफिशियेंसी डिजीज को देखें, वल्नरेबल (संवेदनशील) ग्रुप के पोषण पर विशेष ध्यान दें। वर्ष 1973 में करतार सिंह कमेटी बनी,  इसमें स्वास्थ्य वर्कर का बहुत ही स्पष्ट रोल बताया गया कि वे शालापूर्व शिक्षा के बच्चों में कुपोषण को चिन्हित करेंगे और उन्हें प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में संदर्भित करेंगे ताकि उनका उपचार किया जा सके। वर्ष 1975 में श्रीवास्तव कमेटी ने इंडिया के लिए एक हेल्थ फ्रेमवर्क बनाया। उनके अनुसार गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले ज्यादातर लोगों में विशेष रुप से छोटे बच्चे,  गर्भवती महिलाएं,  धात्री माताओं  और दिव्यांग  में भुखमरी और कुपोषण व्याप्त है। गर्भवती, धात्री, छोटे बच्चे और स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए सप्लीमेंट्री फीडिंग  या अनुपूरक पोषक आहार संबंधी सरकारी योजनाएं चलाए जाने की बात कही गई।

उपरोक्त परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए, भारत सरकार द्वारा एकीकृत बाल विकास सेवाएँ वर्ष 1975 में कुपोषण दूर करने के उद्देश्य से शुरू की गयी। आंगनवाड़ी केन्द्रों के माध्यम से पोषण संबंधी कार्यक्रम भी शुरू किए गए। वर्ष 1983 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनी, इसमें भी स्वीकार किया गया कि देश में कुपोषण की दर बहुत ही उच्च है। इसको कम करने के लिए स्पेशल प्रोग्राम जोकि सप्लीमेंट्री फीडिंग प्रोग्राम विशेष संवेदनशील समूह के लिए चलाए जाने चाहिए। पोषण शिक्षा और पोषण शोध पर बढ़ावा देने की बात भी कही गई। आई सी ड़ी एस के अनुपूरक पोषाहार व मिड डे मील कार्यक्रम बच्चों में पूरक आहार हेतु चलाये गए। उत्तर प्रदेश में राज्य पोषण मिशन वर्ष 2014 में कुपोषण दूर करने के लिए शुरू हुआ था। वर्ष 2017 में नवीनतम राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनी। इसमें व्यापक रूप से कुपोषण, अल्प पोषण का प्रभाव व प्रबंधन पर चर्चा की गई।

भारत को कुपोषण मुक्त बनाने के लिए वर्ष 2018 में राष्ट्रीय पोषण अभियान की शुरुआत की गई। वर्ष 2018 से ही सितंबर माह को राष्ट्रीय पोषण माह के रूप में मनाया जाता है। इसी क्रम में सितंबर 2022 पांचवा राष्ट्रीय पोषण माह है। कुपोषण को दूर करने के प्रयास में भारत सरकार द्वारा पोषण 2.0 जीरो योजना भी चलाई जा रही है इसके तहत कुपोषण दूर करने के लिए देश भर में संचालित आंगनवाड़ी केंद्रों को सक्षम आंगनवाड़ी केंद्र बनाए जाने पर विशेष महत्व दिया जा रहा है। प्रत्येक गांव में पोषण पंचायत गठन का प्रावधान किया गया है तथा इसके माध्यम से कुपोषण पर पैनी निगाह रखी जाएगी। यह सब कार्य अंतरमंत्रालयी या अंतर-विभागीय समन्वय के आधार पर किए जाने हैं। क्योंकि कुपोषण के सामाजिक-आर्थिक निर्धारको को देखने पर ज्ञात होता है कि कुपोषण जैसी समस्या के विकास में स्वच्छता का अभाव,  गरीबी,  अशिक्षा,  पोषण-शिक्षा का अभाव,  स्वास्थ्य सेवाओं तक समय से पहुंच, संतुलित आहार की उपलब्धता में कमी,  समाज में फैली भ्रांतियां,  पोषण के प्रति सही जानकारी का अभाव आदि इस समस्या को बढ़ाने में विशेष भागीदारी निभाते हैं। ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट हो जाता है कि कुपोषण से लड़ने के लिए हमें संयुक्त प्रयास करना पड़ेगा। इसी को ध्यान में रखते हुए विभिन्न विभागों जैसे बाल विकास सेवा एवं पुष्टाहार,  स्वास्थ्य विभाग,  पंचायती राज विभाग,  खाद्य एवं रसद विभाग,  नमामि गंगे एवं ग्रामीण जलापूर्ति विभाग,  ग्रामीण विकास विभाग,  शिक्षा विभाग,  आजीविका मिशन आदि के समन्वय से कुपोषण से निजात पाना है। यह सभी विभाग समुदाय स्तर पर अपनी-अपनी सेवाओं के माध्यम से ऐसा वातावरण तैयार करेंगे जिसमें बच्चों को कुपोषण होने की संभावना कम से कम हो। 

अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ़ आदि ने समय-समय पर कुपोषण के वैश्विक आंकड़े प्रस्तुत किए। भारत के संदर्भ में नेशनल फॅमिली हैल्थ सर्वे ये आंकड़े प्रकाशित करते हैं। हाल ही में प्रकाशित नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे -5  द्वारा बच्चों में कुपोषण का स्तर मापा गया है। भारत में कुपोषण को मुख्यतः तीन कैटेगरी- स्टंटिंग,  वेस्टिंग और अंडरवेट में मापा ग़या है. भारत में 5 वर्ष तक के कुल 36% बच्चे नाटापन अर्थात स्टंटिंग का शिकार है, 19% बच्चे दुबलापन अर्थात वेस्टिंग का शिकार है और 32% बच्चे अल्पवजन अर्थात अंडरवेट का शिकार है। हालांकि नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 4 के आंकड़ों से तुलना करने पर इन तीनों कैटेगरी के कुपोषण में कमी दर्ज की गई है। एनीमिया का स्तर भी मापा गया है क्योंकि कुपोषण का एक मुख्य कारण खून की कमी (एनीमिया) भी होता है। भारत में गंभीर एनीमिया से ग्रसित बच्चों की संख्या 2.1% है, मध्यम एनीमिक बच्चों की संख्या 35.8% है,  अल्प एनीमिक बच्चों की संख्या 29.2 प्रतिशत है। सर्वे यह भी दर्शाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण की दर अधिक है। यदि जाति के आधार पर देखा जाए तो अनुसूचित जाति व जनजाति में कुपोषण का प्रभाव ज्यादा पाया गया है। यदि आर्थिक पृष्ठभूमि के अनुसार देखा जाए तो गरीब परिवारों में कुपोषण की दर अधिक है लेकिन कुपोषण के मामले संपन्न परिवारों में भी पाए गए हैं। कुपोषण की समस्या मुख्यता लोगों में पोषण शिक्षा का अभाव, जागरूकता की कमी व ऐसी सामाजिक मान्यता कि बच्चों का पालन-पोषण व देखरेख की जिम्मेदारी मां की होती है, के कारण है।

कुपोषण की भयावहता को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य असेंबली द्वारा वर्ष 2025 तक संपूर्ण विश्व को कुपोषण मुक्त बनाने का संकल्प लिया है। अंतरराष्ट्रीय संस्था यूनिसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा  विश्व बैंक ने कुपोषण पर एक संयुक्त रिपोर्ट ‘लेबल्स एंड ट्रेंड्स  इन चाइल्ड मालनूट्रिशन 2020’  जारी की है। इस रिपोर्ट के अनुसार पूरे विश्व में 144 मिलियन बच्चे स्टंटिंग अर्थात नाटापन, 47 मिलियन बच्चे वेस्टिंग अर्थात दुबलापन, तथा 40.3 मिलियन बच्चे सीवियर वेस्टिंग अर्थात गंभीर दुबलापन से ग्रसित है। इस रिपोर्ट के अनुसार ज्यादातर कुपोषित बच्चे अफ्रीका और एशिया में रहते हैं। एशिया में विशेषतया  साउथ एशिया में कुपोषण की स्थिति ज्यादा भयावह है। यूनाइटेड नेशन्स डेव्लपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) के अनुसार पाँच वर्ष तक की आयु के 90 मिलियन से ज्यादा बच्चे गंभीर अल्पवजन (अंडरवेट) के शिकार हैं। यूएनडीपी ने सतत धरणीय लक्ष्य (एसडीजी) में कुपोषण व इसके सभी प्रकारों को वर्ष 2030 तक समाप्त करने का लक्ष्य बनाया है। यूएनडीपी का कहना है कि वर्ष भर सभी बच्चों को पोषक तत्वों युक्त भोजन मिलना चाहिए।     

बहुत समय तक कुपोषण को मेडिकल साइंस का एक विषय समझा गया है और यह माना गया कि इसका सामाजिक संस्कृति,  सामाजिक वर्ग एवं जाति एवं सामाजिक-आर्थिक संरचना से कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन समाजशास्त्रीय उपागम एवं मेडिकल सोशियोलॉजिस्ट द्वारा रिसर्च के माध्यम से यह बात बताई गई कि कैसे विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्टभूमि से संबंध रखने वाले कुछ संवेदनशील समूह जैसे छोटे बच्चे,  गर्भवती एवं धात्री महिलाएं एवं दिव्यांग आदि का पोषण स्तर दूसरों के मुकाबले कम होता है। सामाजिक-आर्थिक कारक जैसे जाति, वर्ग और धर्म आदि कि किसी व्यक्ति के पोषण-स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। समाज के निम्न स्तर पर जो लोग हैं उनकी स्वास्थ्य एवं पोषण सुविधाओं तक कम पहुंच हो पाती है। इसीलिए विकासशील देशों में कुपोषण लंबे समय से एक गंभीर समस्या बना हुआ है। इसकी वजह से देश को एक स्वस्थ व सुपोषित मानव सम्पदा नहीं मिल पा रही है। बच्चे ही देश का भविष्य होते हैं और जब देश का भविष्य ही कुपोषित हो तो देश कैसे प्रगति कर सकता है। कुपोषण को  राजनीति से जोड़ा जाना चाहिए और राजनीतिक पार्टियां जिस तरह स्वास्थ्य को चुनावी एजेंडा में शामिल करती हैं उसी तरह कुपोषण को भी किया जाना चाहिए क्योंकि भारतीय संविधान हर बच्चे को ‘कुपोषण मुक्त जीवन’ का अधिकार देता है। 

अंत में इतना ही कहना है कि कुपोषण को दूर करने के लिए समाज व सरकार दोनों को साथ मिलकर काम करना है। यदि समाज में रहने वाले जन-साधारण का साथ होगा तो कुपोषण तो क्या कोई भी  समस्या हो उससे पार पाना मुश्किल नहीं है।  

Check Also

सुनहरा रहा बाबू राजेन्द्र सिंह यादव का सियासी सफर : 1 बार मंत्री और 7 बार बने विधायक,22 नवम्बर को पुण्य तिथि

फर्रुखाबाद। (आवाज न्यूज ब्यूरो)  मोहम्मदाबाद विधानसभा क्षेत्र में बाबू राजेन्द्र सिंह यादव का सियासी सफर …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *